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________________ श्री उपगूहन अंग पूजन ८. श्री उपगूहन अंग पूजन (कुण्डलिया) यह उपगूहन अंग ही, करता पर उपकार । सम्यग्दर्शन पूर्ण ही, ले जाता भवपार ।। ले जाता भवपार दोष न कहता सबके। थोड़े से गुण भी हों तो प्रगटाता सबके।। विनयभक्ति से भावसहित करता हूँ पूजन । सभी प्राणियों का हित करता यह उपगूहन ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य उपगृहनांग अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य उपगूहनांग अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य उपगृहनांग अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (मानव) शिवसुख आशासरिता से पावन जल निर्मल लाऊँ। जन्मादि रोग क्षय करके उज्ज्वलता हृदय सजाऊँ।। परदोष न कहने का ही कर्त्तव्य समकिती जन का। समकित की ऊर्जा पाना फल उत्तम उपगूहन का ।।१।। ॐ ह्रीं श्री उपगूहनांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । शिवसुख आशासरिता से ध्रुव शीतल चंदन लाऊँ। संसारताप सब क्षयकर शीतलता हृदय सजाऊँ ।। परदोष न कहने का ही कर्त्तव्य समकिती जन का। समकित की ऊर्जा पाना फल उत्तम उपगूहन का ।।२।। ॐ ह्रीं श्री उपगृहनांगाय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। शिवसुख आशासरिता से अक्षत गुण उज्ज्वल लाऊँ। अक्षयपद प्राप्त करूँ मैं आनंद अतीन्द्रिय पाऊँ।। परदोष न कहने का ही कर्त्तव्य समकिती जन का। समकित की ऊर्जा पाना फल उत्तम उपगूहन का ।।३।। ॐ ह्रीं श्री उपगृहनांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। शिवसुख आशासरिता से गुणपुष्प अपूर्व मँगाऊँ। चिर कामबाण दुःख नायूँ गुण महाशील प्रभु पाऊँ ।। परदोष न कहने का ही कर्त्तव्य समकिती जन का। समकित की ऊर्जा पाना फल उत्तम उपगूहन का ।।४।। ॐ ह्रीं श्री उपगृहनांग कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। शिवसुख आशासरिता के निज रसमय सुचरु चढ़ाऊँ। चिर क्षुधाव्याधि विनशाऊँ पद निराहार निज पाऊँ ।। परदोष न कहने का ही कर्त्तव्य समकिती जन का। समकित की ऊर्जा पाना फल उत्तम उपगूहन का ।।५।। ॐ ह्रीं श्री उपगूहनांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । शिवसुख आशासरिता के दीपक निज हृदय जगाऊँ। चिर मोहभ्रान्ति को नाथू कैवल्यज्ञाननिधि पाऊँ ।। परदोष न कहने का ही कर्तव्य समकिती जन का। समकित की ऊर्जा पाना फल उत्तम उपगूहन का ।।६।। ॐ ह्रीं श्री उपगूहनांगाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। शिवसुख आशासरिता से निज धूप ध्यानमय लाऊँ। ध्रुव नित्य निरंजन पद या अब अष्टकर्म विनशाऊँ। परदोष न कहने का ही कर्त्तव्य समकिती जन का। समकित की ऊर्जा पाना फल उत्तम उपगूहन का ।।७।। ॐ ह्रीं श्री उपगूहनांगाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। शिवसुख आशासरिता पर क्षायिकसमकितनिधि पाऊँ। जगदाग्नि बुझाऊँ स्वामी ध्रुवधाम मोक्षफल पाऊँ ।। परदोष न कहने का ही कर्त्तव्य समकिती जन का। समकित की ऊर्जा पाना फल उत्तम उपगूहन का ।।८।। ॐ ह्रीं श्री उपगूहनांगाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। शिवसुख आशासरिता पर वसविध गणअर्घ्य बनाऊँ। पदवी अनर्घ्य निज पाऊँ आनंदसिन्धु उर लाऊँ ।। 22
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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