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________________ ८. श्री स्थितिकरण अंग पूजन (सरसी) षष्टम स्थितिकरण अंग की महिमा पाऊँ मैं। धर्म मार्ग से डिगने वालों को समझाऊँ मैं ।। उन्हें मार्ग पर लाकर मैं उनका कल्याण करूँ। इसमें ही अपना हित समझूअरु दुःख का अवसान करूँ॥ स्थितिकरण अंग की पूजन करता हूँ सविनय । सम्यग्दर्शन अखंड पाकर पाऊँ सौख्य निलय ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य स्थितिकरणांग अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ हीं श्री सम्यग्दर्शनस्य स्थितिकरणांग अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य स्थितिकरणांग अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (वीर) निर्विकल्प होने कोस्वामी शुक्लध्यान जल लाऊँ आज। जन्म जरा मरणादि व्याधि हर पाऊँशाश्वत निज पदराज। स्थितिकरण अंग की महिमा जिनआगम में है विख्यात । धर्ममार्ग से डिगते प्राणी को सुस्थिर रखना प्रख्यात ।।१।। ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरणांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। निर्विकल्प होने को स्वामी शुक्लध्यान चंदन लाऊँ। यह संसारतापज्वर नाथू शीतलता उर प्रगटाऊँ ।। स्थितिकरण अंग की महिमा जिनआगम में है विख्यात । धर्ममार्ग से डिगते प्राणी को सुस्थिर रखना प्रख्यात ।।२।। ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरणांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। निर्विकल्प होने को स्वामी शुक्लध्यान अक्षत लाऊँ। उत्तम अक्षयपद प्रगटाकर भवसमुद्र यह तर जाऊँ ।। श्री स्थितिकरण अंग पूजन स्थितिकरण अंग की महिमा जिनआगम में है विख्यात । धर्ममार्ग से डिगते प्राणी को सुस्थिर रखना प्रख्यात ।।३।। ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरणांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा । निर्विकल्प होने को स्वामी शुक्लध्यान के पुष्प सजा। कामबाण विध्वंस करूँ मैं नाचूँ गाऊँ वाद्य बजा । स्थितिकरण अंग की महिमा जिनआगम में है विख्यात। धर्ममार्ग से डिगते प्राणीको स्थिर रखना प्रख्यात ।।४।। ॐ हीं श्री स्थितिकरणांगाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। निर्विकल्प होने को स्वामी शुक्लध्यान चरु लाऊँ आज। क्षुधारोग हर स्वपद अनाहारी उत्तम पाऊँ जिनराज ।। स्थितिकरण अंग की महिमा जिनआगम में है विख्यात । धर्ममार्गसे डिगते प्राणी को स्थिर रखना प्रख्यात ।।५।। ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरणांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। निर्विकल्प होने को स्वामी शुक्लध्यान दीपक लाऊँ। महामोह मिथ्यात्वतिमिर हर केवलज्ञानसूर्य पाऊँ ।। स्थितिकरण अंग की महिमा जिनआगम में है विख्यात । धर्ममार्ग से डिगते प्राणी को सुस्थिर रखना प्रख्यात ।।६।। ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरणांगाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। निर्विकल्प होने को स्वामी शुक्लध्यान की लाऊँ धूप। अष्टकर्म सम्पूर्ण चूर्णकर प्रगटाऊँ निज आत्मस्वरूप ।। स्थितिकरण अंग की महिमा जिनआगम में है विख्यात । धर्ममार्ग से डिगते प्राणी को सुस्थिर रखना प्रख्यात ।।७।। ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरणांगाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। निर्विकल्प होने को स्वामी शुक्लध्यान के फल पाऊँ। निज पुरुषार्थशक्ति के बल से महामोक्षफल पा जाऊँ ।। स्थितिकरण अंग की महिमा जिनआगम में है विख्यात । धर्ममार्ग से डिगते प्राणी को सुस्थिर रखना प्रख्यात ।।८।। ॐ हीं श्री स्थितिकरणांगाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। निर्विकल्प होने को स्वामी अर्घ्य अपूर्व बनाऊँ आज। निरुपम पद अनर्घ्य प्रगटाऊँ पाऊँ अपना सुख साम्राज्य ॥ 24
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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