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________________ ४. श्री अष्टांग समुच्चय पूजन (वीर) सम्यग्दर्शन के आठों अंगों की पूजन करूँ विशेष । सम्यग्दर्शन अष्ट अंगयुत मैं भी पाऊँ हे परमेश ।। एक अंग भी अगर हीन है तो समकित होता न कभी। मोक्षमार्ग में जप-तप-संयम अष्ट अंगबिन व्यर्थ सभी।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितादिक अष्टांग सम्यक्दर्शन अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री निःशंकितादिक अष्टांग सम्यक्दर्शन अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री निःशंकितादिक अष्टांग सम्यक्दर्शन अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (मानव) सम्यक् स्वभावजलधारा निज अंतरंग में लाऊँ। जन्मादिरोगत्रय क्षयकर सम्पूर्ण मुक्तिसुख पाऊँ ।। अष्टांग सहित समकित की वेला मैं भी पाऊँगा। अन्तर्पट पर निजपरिणति संग नाचूँगा-गाऊँगा ।।१।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । सम्यक्स्वभावचंदन का में शीतल तिलक लगाऊँ। संसारतापज्वर सारा निजबल से त्वरित भगाऊँ ।। अष्टांग सहित समकित की वेला मैं भी पाऊँगा। अन्तर्पट पर निजपरिणति संग नाचूँगा-गाऊँगा ।।२।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांग सम्यग्दर्शनाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्स्वभाव-अक्षत् की महिमा उर को भायी है। अक्षय अखंडपद पाने की रुचि उर में आयी है ।। अष्टांग सहित समकित की वेला मैं भी पाऊँगा। अन्तर्पट पर निजपरिणति संग नाचूँगा-गाऊँगा ।।३।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। श्री अष्टांग समुच्चय पूजन सम्यक्स्वभावपुष्पों की वरमाला पाऊँ नामी । चिर कामव्यथा को क्षयकर निष्काम बन हे स्वामी ।। अष्टांग सहित समकित की वेला मैं भी पाऊँगा। अन्तर्पट पर निजपरिणति संग नाचूँगा-गाऊँगा ।।४।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्स्वभाव रस निर्मित चरु चरण चढ़ाऊँगा प्रभु । ध्रुव तृप्तिप्रदाता शिवपथ पर चरण बढ़ाऊँगा विभु ।। अष्टांग सहित समकित की वेला मैं भी पाऊँगा। अन्तर्पट पर निजपरिणति संग नाचूँगा-गाऊँगा ।।५।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । सम्यक्स्वभावघृतदीपक जगमग-जगमग मैं पाऊँ । मोहान्धकार क्षय करके कैवल्यज्ञाननिधि पाऊँ ।। अष्टांग सहित समकित की वेला मैं भी पाऊँगा। अन्तर्पट पर निजपरिणति संग नाचूँगा-गाऊँगा ।।६।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्स्वभाव की पावन निजधूप नाथ लाया हूँ। वसुकर्म नष्ट करने को तुव चरणों में आया हूँ ।। अष्टांग सहित समकित की वेला मैं भी पाऊँगा। अन्तर्पट पर निजपरिणति संग नाचूँगा-गाऊँगा ।।७।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्स्व भाव तरुवर पर ही शुद्ध मोक्षफल मिलते । आनंदामृत के सागर स्वयमेव हृदय में झिलते ।। अष्टांग सहित समकित की वेला मैं भी पाऊँगा। अन्तर्पट पर निजपरिणति संग नाचूंगा-गाऊँगा ।।८।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । सम्यक्स्वभाव -अर्ध्यावलि निरखी है अभ्यंतर में। पदवी अनर्घ्य पाने के परिणाम जगे अन्तर में ।। अष्टांग सहित समकित की वेला मैं भी पाऊँगा। अन्तर्पट पर निजपरिणति संग नाचूँगा-गाऊँगा ।।९।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । 12
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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