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रत्नत्रय विधान
श्री अष्टांग समुच्चय पूजन
कर्मों के गढ़ को तोड़कर निष्कर्म बनो तुम।
फिर तुम सदा को निजानंद उर में धरोगे ।।५।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(वीर) अष्ट अंग सम्यग्दर्शन की पूजन की मैंने जिनराज। समकित पाकर ज्ञान-ध्यान-वैराग्य सजाऊँ उर में आज ।। रत्नत्रयमंडल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।।
पुष्पांजलि क्षिपेत्
महार्घ्य
(विधाता) विभावी भाव करके जो कर्म के बंध करता है। उदय जब कर्म आते तो बंध फिर उर में धरता है।।१।। सुखी होता न कर्मों से दुःखी होता है कर्मों से। नरक-पशु-गति में जाता है स्वर्ग में लोभ करता है ।।२।। एक दिन स्वर्ग से गिरता अधोगति में ये जाता है। भाग्य से पा मनुजभव फिर कर्म खोटे ही करता है।।३।। परावर्तन ये करता है सतत् पाँचों घोर दुःखमय । नहीं घबराता है इनसे पुनः ये बंध करता है ।।४।। अगर निज को निरख ले येतनिक निज को परख ले ये। तो सम्यग्ज्ञान पाते ही भवोदधि दुक्ख हरता है।।५।। अगर मिल जाए रत्नत्रय तो यह निर्वाण सुख पाए । जिनागम घोषणापूर्वक यही जयघोष करता है ।।६।।
(दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, अष्ट अंग सम्यक्त्व । साम्यभाव रसपान कर, पाऊँ पूर्ण समत्व ।।
जयमाला
(दिग्पाल) जबतक स्वभावभाव का आदर न करोगे। तबतक विभावभाव को तुम नहीं हरोगे ।।१।। रागों के राग-मोह दुष्ट से है वास्ता। इसको विनष्ट किए बिना सुख न भरोगे ।।२।। उर तत्त्वज्ञानदीप जलाओगे तो सुनो। संसार-देह-भोग से तुम सदा डरोगे ।।३।। जब मोक्षमार्ग पर चलोगे सावधान हो। शुद्धात्मध्यानशक्ति से भवसिन्धु तरोगे ।।४।।
भावना शुद्ध हृदय लाऊँ । भावना...
रत्नत्रयमंडल विधान की पूजा रचवाऊँ। भावना...।।१।। स्व-पर विवेक हृदय में धारूँ, करूँ तत्त्वश्रद्धान। सम्यग्दर्शन प्राप्त करूँ मैं, करूँ आत्मकल्याण ।।भावना... ।।२।। वस्तुस्वरूप यथावत् जानूँ, पाऊँ सम्यग्ज्ञान । तेरहविध चारित्र हृदय धर, जिन मुनि बनूँ महान ।।भावना... ।।३।। यथाख्यात चारित्र हेतु मैं, करूँ स्वयं का ध्यान । अष्टकर्म सम्पूर्ण नष्ट हो पाऊँ केवलज्ञान ।।भावना...।।४।। रत्नत्रय की भक्ति प्राप्त कर, गाऊँ मंगलगान । एक दिवस निश्चित ही होंगे, सर्व कर्म अवसान ||भावना...।।५।। रत्नत्रय के बिना मुक्ति का मार्ग नहीं मिलता। रत्नत्रय के बिना सिद्धपद, हृदय नहीं झिलता ।।भावना...।।६।।