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________________ प्रवचनसार अनुशीलन जिनको इस बात का विश्वास नहीं है, वे अभव्य हैं - इसमें प्रश्नचिह्न लग सकता है। २७८ आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी उक्त गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "केवलज्ञान इष्ट है और अज्ञान, राग-द्वेष अनिष्ट हैं, जिनका उन्हें नाश हुआ है। कोई भी पर-पदार्थ अथवा कर्म अनिष्ट नहीं है। कर्म तो जड़ हैं। पूर्ण ज्ञानपर्याय इष्ट है, इसके सिवाय कोई दूसरा इष्ट है ही नहीं । केवलज्ञान ने सर्व पदार्थों के पार को पा लिया है और केवलदर्शन लोकालोक में विस्तृत है । केवली भगवान को सर्व अनिष्ट अर्थात् अज्ञान और राग-द्वेष का नाश हुआ है और इष्ट अर्थात् पूर्णज्ञान प्राप्त हुआ है; इसलिए केवलज्ञान सुखस्वरूप है।' केवलज्ञान में स्वभाव के प्रतिघात का अभाव है, इसलिए केवलज्ञान सुखस्वरूप है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शन है। केवलदशा में दर्शनज्ञान के प्रतिघात का अभाव है; क्योंकि दर्शन लोकालोक में विस्तृत है और ज्ञान ने पदार्थों के पार को प्राप्त किया है। पूर्णज्ञान होने पर अनाकुलता जिसका लक्षण है, वह सुख प्रगट होता है। यद्यपि ज्ञान और सुख पृथक् गुण हैं, पर अभेद विवक्षा से ज्ञान ही सुख है । ४" ६१वीं गाथा में मात्र यह कहा गया है कि केवलज्ञानी के सर्व अनिष्ट नष्ट हो गये हैं और लोकालोक को देखने-जानने की सामर्थ्य प्रगट हो चुकी है; इसकारण वे पूर्णसुखी, अनन्तसुखी हैं और ६२वीं गाथा का भाव यह है कि उक्त अनंतसुखी केवलज्ञानी की श्रद्धा अभव्यों को नहीं होती, नहीं हो सकती तथा दूरभव्यों को भी इसकी श्रद्धा कम से कम अभी होना तो संभव नहीं है; किन्तु जो निकटभव्य हैं; उन्हें सर्वज्ञ भगवान की श्रद्धा अल्पकाल में ही होगी। तात्पर्य यह है कि जिन्हें सर्वज्ञ भगवान की श्रद्धा है; वे तो निकटभव्य हैं ही। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-९१ ३. वही, पृष्ठ-८४ २. वही, पृष्ठ- ८२ ४. वही, पृष्ठ- ८५ प्रवचनसार गाथा - ६३-६४ अबतक यह बताते आ रहे थे कि केवलज्ञानी के स्वाभाविक सुख है, अतीन्द्रिय आनन्द है; वे अनंतसुखी हैं और अब आगामी गाथाओं में यह बता रहे हैं कि मति-श्रुतज्ञानवालों के इन्द्रियज्ञानवालों के जो इन्द्रियसुख देखने में आता है; वह सुख है ही नहीं; वह तो नाम का सुख है। परोक्षज्ञानी वस्तुतः तो दुखी ही हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं मणुआसुरामरिंदा अहिदहुदा इन्दिएहिं सहजेहिं । असहंता तं दुक्खं रमंति विसएसु रम्मेसु ।। ६३ ।। जेसिं विसएसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं । जड़ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ।। ६४ ।। ( हरिगीत ) नरपती सुरपति असुरपति इन्द्रियविषयदवदाह से । पीड़ित रहें सह सके ना रमणीक विषयों में रमें ।। ६३ ।। पंचेन्द्रियविषयों में रती वे हैं स्वभाविक दुःखीजन । दुःख के बिना विषविषय में व्यापार हो सकता नहीं । । ६४ । । चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और सुरेन्द्र सहज इन्द्रियों से पीड़ित रहते हुए उन दुखों को सहन न कर पाने से रम्य विषयों में रमण करते हैं । जिन्हें विषयों में रति है; उन्हें दुख स्वाभाविक जानो; क्योंकि यदि वे दुखी न हों तो विषयों में व्यापार न हो । इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "प्रत्यक्षज्ञान के अभाव में परोक्षज्ञान का आश्रय लेनेवाले इन प्राणियों को परोक्षज्ञान की सामग्रीरूप इन्द्रियों के प्रति निजरस से ही मैत्री देखी जाती है।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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