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________________ २७६ प्रवचनसार अनुशीलन गाथा-६१-६२ ર૭૭ संभव है कि जो लोग अभी उक्त कथन पर श्रद्धा नहीं करते, वे भविष्य में भी श्रद्धा नहीं करेंगे। अत: अभी श्रद्धा न करनेवालों को मिथ्यादृष्टि तो कहा जा सकता है, पर अभव्य कहना संभव नहीं है ? वस्तुत: स्थिति यह है कि जो अभी श्रद्धा नहीं करते, वे मिथ्यादृष्टि हैं और जो न तो अभी श्रद्धा करते हैं और न कभी भी श्रद्धा करेंगे, वे अभव्य हैं। गाथा और तत्त्वप्रदीपिका टीका का भी यही भाव है और उसी का विशेष स्पष्टीकरण आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इसप्रकार करते हैं “वे जीव वर्तमान समय में सम्यक्त्वरूपी भव्यत्व की प्रगटता का अभाव होने से अभव्य कहे जाते हैं; वे सर्वथा अभव्य नहीं हैं। जो जीव वर्तमान काल में सम्यक्त्वरूप भव्यत्व की प्रगटतारूप से परिणमित हैं; वे भव्य उस अनन्तसुख की अभी श्रद्धा करते हैं और जो जीव सम्यक्त्वरूप भव्यत्व की प्रकटतारूप से भविष्य में परिणमित होंगे; वे दूरभव्य आगे श्रद्धान करेंगे। जिसप्रकार कोतवाल द्वारा मारने के लिए पकड़े गये चोर को मरण अच्छा नहीं लगता; उसीप्रकार सराग सम्यग्दृष्टि को इन्द्रियसुख इष्ट नहीं है, तथापि कोतवाल के समान चारित्र मोहनीय के उदय से मोहित होता हुआ आत्मनिन्दा आदिरूप से परिणत वह सराग सम्यग्दृष्टि राग रहित अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सुख को प्राप्त नहीं करता हुआ हेयरूप से उसका अनुभव करता है और जो वीतराग सम्यग्दृष्टि शुद्धोपयोगी हैं, उनको मछलियों को भूमि पर आने के समान अथवा अग्निप्रवेश के समान निर्विकार शुद्धात्मसुख से च्युत होना भी दुख प्रतीत होता है। कहा भी है कि जिसप्रकार मछलियों को जब भूमि ही जलाती है, तो फिर अंगारों की बात ही क्या करना; वे तो जलावेंगे ही; उसीप्रकार समतासुख का अनुभव करनेवाले मनुष्य को समता से च्युत होना ही अच्छा नहीं लगता है तो फिर पंचेन्द्रिय विषय-भोगों की तो बात ही क्या है; वे उनमें कैसे रम सकते हैं?" इसीप्रकार कविवर वृन्दावनदासजी ६१वीं गाथा के भाव को तो गाथा और टीकाओं के अनुसार ही चार छन्दों में बाँधते हैं; पर ६२वीं गाथा के भाव को दो छन्दों में अपने ही तरीके से प्रस्तुत करते हैं; जिसमें पहला छन्द इसप्रकार है (माधवी) जिनको यह घातियकर्म विघाति कै, केवल जोति अनन्त फुरी है। सुख में उतकिष्ट अतीन्द्रिय सौख्य, तिन्हैं सरवंग अभंग पुरी है।। तिसको न अभव्य प्रतीति करें, पुनि दूर हु भव्य की बुद्धि दुरी है। यह बात वही शरधा धरि हैं, जिनके भव की थिति आनि जुरी है ।।३०।। जिन केवली भगवान के घातिकर्मों के अभाव से केवलज्ञान की अनन्त ज्योति स्फुरायमान हुई है; उनको उत्कृष्ट अखण्ड अतीन्द्रियसुख सर्वांग प्रगट हुआ है। अभव्यों को तो इस बात का विश्वास ही नहीं होता और दूरभव्यों की बुद्धि में भी यह बात जल्दी आनेवाली नहीं है; उन्हें इस बात का विश्वास करने में अभी बहुत समय बाकी है। इस बात की श्रद्धा तो वे ही जीव करते हैं कि जिनके संसार सागर का किनारा निकट आ गया है। ___ जिनको इस बात का विश्वास नहीं है, वे अभव्य हैं और अभव्यों को इस बात का विश्वास नहीं होता' - उक्त दोनों वाक्यों के भाव में बहुत अन्तर है। प्रथम वाक्य से तो ऐसा लगता है कि जिन्हें उक्त बात में अभी विश्वास नहीं है, वे अभव्य हैं - यह कहा जा रहा है। जबकि दूसरे वाक्य में साफ-साफ कहा है कि अभव्यों को उक्त बात पर श्रद्धा नहीं होती। कविवर वृन्दावनदासजी ने बड़ी ही समझदारी से दूसरे प्रकार के वाक्य का प्रयोग किया है; जो ध्यान देनेयोग्य है; क्योंकि अभव्यों को तो उक्त बात कभी स्वीकार होगी ही नहीं - यह बात तो निरापद सत्य है; परन्तु
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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