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प्रवचनसार अनुशीलन इन्द्रियों के प्रति मैत्री को प्राप्त उन प्राणियों को उदयप्राप्त महामोहरूपी कालाग्नि ने ग्रास बना लिया है; इसलिए उन्हें तप्त लोहे के गोले की भाँति अत्यन्त तृष्णा उत्पन्न हुई है; उस दुख के वेग को सहन न कर सकने के कारण उन्हें व्याधि के प्रतिकार के समान रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है; इसलिए इन्द्रियाँ व्याधि के समान और विषय व्याधि के प्रतिकार के समान होने से छद्मस्थों के पारमार्थिक सुख नहीं है।
जिनकी हत (निकृष्ट) इन्द्रियाँ जीवित हैं, उन्हें उपाधि के कारण दुख नहीं है, संयोगों के कारण दुख नहीं है; अपितु उनका दुख स्वाभाविक ही है क्योंकि उनकी विषयों में रति देखी जाती है।
जिसप्रकार हाथी हथिनीरूपी कुट्टनी के शरीर के स्पर्श की ओर, मछली बंसी में फंसे हुए मांस के स्वाद की ओर, भ्रमर बन्द जो जानेवाले कमल की गंध की ओर, पतंगे दीपक की ज्योति के रूप की ओर तथा हिरन शिकारी के संगीत के स्वर की ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं; उसीप्रकार दुर्निवार इन्द्रियवेदना के वशीभूत होते हुए वे यद्यपि विषयों का नाश अति निकट है; तथापि विषयों की ओर दौड़ते दिखाई देते हैं।
यदि 'उनका दुख स्वाभाविक है' - ऐसा स्वीकार न किया जाय तो जिसप्रकार जिसका शीतज्वर उपशान्त हो गया है, वह पसीना लाने के लिए उपचार करता; जिसका दाहज्वर उतर गया है, वह कांजी से शरीर के ताप को उतारता, जिसकी आँख का दुख दूर हो गया है, वह वटाचूर्ण
आँजता, जिसका कर्ण शूल नष्ट हो गया है, वह कान में बकरे का मूत्र डालता दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार इन्द्रियसुखवालों के दुख नहीं हो तो उनके इन्द्रिय विषयों में व्यापार देखने में नहीं आना चाहिए; किन्तु उनके विषय प्रवृत्ति देखी जाती है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जिनके इन्द्रियाँ जीवित हैं; ऐसे परोक्षज्ञानियों के दुख स्वाभाविक ही है।"
उक्त गाथाओं और उसकी टीका में यह बात सिद्ध की गई है कि पुण्योदय से प्राप्त होनेवाले विषय-भोगों में रंचमात्र भी सुख नहीं है; अपितु
गाथा-६३-६४
२८१ वे दुखरूप ही हैं। गाथा में तो यहाँ तक लिखा है कि अपार भोग-सामग्री से सम्पन्न चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और सुरेन्द्र भी दुखी हैं; क्योंकि वे अपने दुखों को दूर करने के लिए रमणीक विषयों में रमण करते हैं।
यदि वे दुखी नहीं होते तो उनकी विषयों में प्रवृत्ति नहीं होती । यहाँ पाँच इन्द्रियों संबंधी पाँच उदाहरण देकर यह बताया गया है कि जब एकएक इन्द्रिय के वशीभूत होकर प्राणी इतने दुख उठाते हैं तो फिर जो पाँचों इन्द्रियों के आधीन हैं; उनके दुखों की तो बात ही क्या करना ?
हाथी स्पर्शन इन्द्रिय के वश होकर कुट्टनी हथिनी के पीछे भागता हुआ गड्ढे में गिरकर जीवनभर को गुलाम बन जाता है, मछली रसना इन्द्रिय के वशीभूत होकर अपना कंठ छिदाकर मरण को प्राप्त होती है, गंध का लोभी भौंरा कमल में बंद होकर जान गंवा देता है, रूप के लोभी पतंगे दीपक की ज्योति पर जल मरते हैं और संगीत के लोभी हिरण शिकारी द्वारा मार दिये जाते हैं। इसप्रकार एक-एक इन्द्रियों के आधीन प्राणियों की दुर्दशा देखकर यह विचार करना चाहिए कि पाँचों इन्द्रियों के गुलामों को सुखी कैसे कहा जा सकता है ? ।
दूसरे उदाहरणों से भी यह सिद्ध किया गया है कि वे दुखी ही हैं।
कहा जाता है कि बकरे की पेशाब कान में डालने से कान का दर्द ठीक हो जाता है। यह तो आप जानते ही हैं कि जो वस्तु कान में डाली जाती है, वह गले के माध्यम से मुँह में भी आ जाती है। ऐसा कौन व्यक्ति होगा कि जो महानिंद मल-मूत्र को अपने कान में डालेगा; किन्तु जब कान में भयंकर दर्द होता है तो अशुद्धता का विचार किये बिना लोग ऐसा भी करते देखे जाते हैं।
जिसप्रकार बकरे की पेशाब को कान में डलवाना इस बात का प्रतीक है कि उसे भयंकर पीड़ा हो रही है; उसीप्रकार पंचेन्द्रिय विषयों की गंदी से गंदी क्रियायें इस बात की प्रमाण हैं कि पंचेन्द्रिय विषयों को भोगनेवाले