SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ नमः (अनुष्टुप ) परमचैतन्यस्वात्मोत्थसुखसम्पदे । परमेष्ठिने ।। १ ।। परमागमसाराय प्रवचनसार अनुशीलन सिद्धाय (दोहा) चिदानन्द आत्मोत्थसुखसम्पत्ति से सम्पन्न । परमागम के सार श्री नमो सिद्ध भगवन्त ॥ १ ॥ परमचैतन्यमय निजात्म के आश्रय से उत्पन्न सुखरूपी सम्पदा से सम्पन्न परमागम के सारभूत सिद्धपरमेष्ठियों को नमस्कार है। यहाँ सिद्धभगवान को परमागम का सार बताया गया है। तात्पर्य यह है कि परमागम में निरूपित शुद्धात्मतत्त्व के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान के फलस्वरूप ही सिद्धपद की प्राप्ति होती है। इसलिए सिद्धभगवान परमागम के सारभूत परमपदार्थ हैं। दूसरी बात यह बताई गई है कि सिद्धभगवान अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रिय अव्याबाध अनन्त आनन्द से सम्पन्न हैं। हम सभी भव्यात्माओं की भावना भी उसी अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति की है। भूतार्थ अभूतार्थ पर से भिन्न और अपने से अभिन्न इस भगवान आत्मा में प्रदेशभेद, गुणभेद एवं पर्यायभेद का भी अभाव है। भगवान आत्मा के अभेद-अखण्ड इस परमभाव को ग्रहण करनेवाला नय ही शुद्धनय है और यही भूतार्थ है, सत्यार्थ है, शेष सभी व्यवहारनय अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। जो व्यक्ति इस शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को जानता है, वह समस्त जिनशासन का ज्ञाता है; क्योंकि समस्त जिनशासन का प्रतिपाद्य एक शुद्धात्मा ही है, इसके ही आश्रय से निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रगट होता है। - सार समयसार, पृष्ठ ४-५ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार ( गाथा १ से गाथा ९२ तक ) प्रवचनसार गाथा १-५ इसप्रकार मंगलाचरण और टीका लिखने की प्रतिज्ञा करने के उपरान्त अब आचार्य अमृतचन्द्र आचार्य कुन्दकुन्द रचित प्रवचनसार के मंगलाचरण और प्रतिज्ञावाक्य संबंधी पाँच गाथाओं की उत्थानिका लिखते हैं; जिसका भाव इसप्रकार है - "जिनके संसारसमुद्र का किनारा अति निकट है, जिन्हें सातिशय विवेकज्योति प्रगट हो गई है, जिनका एकान्तवादरूप समस्त अविद्या का अभिनिवेश (आग्रह) अस्त हो गया है; ऐसे कोई (आचार्य कुन्दकुन्ददेव) पारमेश्वरी अनेकान्त विद्या को प्राप्त करके, समस्त पक्षों का परिग्रह त्याग देने से अत्यन्त मध्यस्थ होकर; समस्त पुरुषार्थों में सारभूत होने से आत्मा के लिए अत्यन्त हिततम, पंचपरमेष्ठियों के प्रसाद से उत्पन्न होनेयोग्य, परमार्थसत्य, अक्षय मोक्षलक्ष्मी को उपादेयरूप से निश्चित करते हुए प्रवर्तमान तीर्थ के नायक श्री वर्द्धमानपूर्वक पंचपरमेष्ठियों को प्रणाम और वंदन से होनेवाले नमस्कार के द्वारा सम्मान करके; सर्वारंभ से मोक्षमार्ग का आश्रय करते हुए प्रतिज्ञा करते हैं। अब गाथा सूत्रों का अवतरण होता है।' उक्त उत्थानिका में मूलतः मात्र इतना ही कहा गया है कि आचार्य कुन्दकुन्द मध्यस्थ होकर मोक्षलक्ष्मी को उपादेय करते हुए भगवान महावीर के साथ-साथ परमेष्ठियों को नमन-वंदन करके पूरी शक्ति से मोक्षमार्ग में स्थित होते हुए प्रतिज्ञा करते हैं। बात मात्र इतनी-सी होने पर भी विशेषणों के समायोजन से वाक्य लम्बा हो गया है। तीन विशेषण तो आचार्य कुन्दकुन्द के ही हैं, जिनमें
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy