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________________ प्रवचनसार अनुशीलन कहा गया है कि उनके संसारसमुद्र का किनारा अति निकट आ गया है अर्थात् वे आसन्नभव्य हैं, शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष जानेवाले हैं; उन्हें सातिशय विवेकज्योति प्रगट हो गई है अर्थात् उन्हें स्व और पर का उत्कृष्टतम विवेक जाग्रत हो गया है, भेदज्ञान हो गया है और एकान्तवादरूप मिथ्यामान्यता का पूर्णत: अभाव हो गया है। तात्पर्य यह है कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव सातिशय विवेक के धनी, निकटभव्य और पक्के अनेकान्तवादी थे। देखो ! यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द से एक हजार वर्ष बाद हुए आचार्य अमृतचन्द्र उन्हें सातिशय विवेक के धनी, पक्के अनेकान्तवादी और निकटभव्य बता रहे हैं। यद्यपि आचार्य अमृतचन्द्र ने उन्हें देखा नहीं था, सुना नहीं था, हजार वर्ष का अन्तर होने से यह संभव भी नहीं था; तथापि उनके ग्रन्थों का गंभीर अध्ययन कर वे उक्त निष्कर्ष पर पहुँचे थे। इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द की विशेषताओं के उल्लेख के उपरान्त अत्यन्त हितकारी, पंचपरमेष्ठी के प्रसाद से प्राप्त होनेयोग्य, परमार्थ सत्य और अक्षय - ये चार विशेषण मोक्षलक्ष्मी के दिये गये हैं। प्रश्न - यहाँ मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति का कारण पंचपरमेष्ठी के प्रसाद को कहा गया है। यह बात कुछ ठीक नहीं लगती; क्योंकि वीतरागियों का प्रसाद कैसे संभव है ? उत्तर - आप्तपरीक्षा की स्वापेज्ञटीका में आचार्य विद्यानंदि ने स्वयं इसीप्रकार का प्रश्न उठाकर उसका समाधान इसप्रकार किया है - "परमेष्ठी में जो प्रसाद-प्रसन्नता गुण कहा गया है, वह उनके शिष्यों का मन प्रसन्न होना ही उनकी प्रसन्नता है; क्योंकि वीतरागियों के तुष्ट्यात्मक प्रसन्नता संभव नहीं है। जिसप्रकार उनमें क्रोध का होना संभव नहीं है; उसीप्रकार प्रसन्नता का होना भी संभव नहीं है; किन्तु जब आराधकजन प्रसन्न मन से उनकी उपासना करते हैं तो भगवान प्रसन्न हुए - ऐसा कह दिया जाता है। गाथा-१-५ जिसप्रकार प्रसन्न मन से रसायन (औषधि) का सेवन करके उसके फल को प्राप्त करनेवाले समझते हैं और कहते भी हैं कि रसायन के प्रसाद से हमें आरोग्यादि फल मिला है अर्थात् हम अच्छे हुए हैं। उसीप्रकार प्रसन्न मन से भगवान परमेष्ठी की उपासना करके उसके फल-श्रेयोमार्ग के ज्ञान को प्राप्त हुए उनके शिष्यजन मानते हैं कि भगवान परमेष्ठी के प्रसाद से हमें श्रेयोमार्ग का ज्ञान हुआ है।" __शेष विशेषणों का भाव तो स्पष्ट ही है कि मोक्ष अनन्त सुखमय होने से अत्यन्तहितकारी है, परमसत्य है और अक्षय अर्थात् कभी नष्ट होनेवाला नहीं है, अविनाशी है। इसप्रकार यह मोक्षलक्ष्मी के विशेषणों का स्पष्टीकरण हुआ। अनेकान्त विद्या को यहाँ पारमेश्वरी विद्या कहा गया है। तात्पर्य यह है कि यह अनेकान्त विद्या सामान्यजनों द्वारा निरूपित लौकिक विद्या नहीं है, यह तो परमेश्वर सर्वज्ञभगवान द्वारा निरूपित वस्तु के वास्तविक स्वरूप की प्रतिपादक पारमार्थिक अलौकिक विद्या है। नयपक्ष का आग्रहरूप परिग्रह के त्याग की बात करके यह कहा जा रहा है कि नय का पक्ष (पक्षपात) ही मिथ्यात्वरूप होने से सबसे बड़ा अंतरंग परिग्रह है; क्योंकि चौबीस परिग्रहों में मिथ्यात्व का स्थान सबसे पहले आता है। इसप्रकार इस उत्थानिका में सबकुछ मिलाकर यही कहा गया है कि आसन्नभव्य, परमविवेकी, अनेकान्तवादी, अपरिग्रही और अनाग्रही आचार्य कुन्दकुन्देव अत्यन्त मध्यस्थ होकर परम हितकारी अक्षय मोक्षलक्ष्मी को उपादेय मानते हुए वर्तमान तीर्थ के नायक होने से सबसे पहले महावीर स्वामी को नमस्कार करके पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करते हुए पूरी शक्ति से मोक्षमार्ग का आश्रय करते हुए प्रतिज्ञा करते हैं। १. आप्तपरीक्षा : स्वोपज्ञटीका, कारिका २, पृष्ठ ११
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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