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________________ प्रवचनसार अनुशीलन यह जिनवाणी सदा जयवंत वर्तती है। तात्पर्य यह है कि तीन काल में कभी भी ऐसा समय नहीं आता कि जब यह सर्वत्र - सर्वथा लुप्त जावे; क्योंकि विदेह क्षेत्रों में बीस तीर्थंकर तो सदा विद्यमान रहते ही हैं और उनकी दिव्यध्वनि भी सदा खिरती ही रहती है। हो १२ अनेकान्त और स्याद्वाद का स्वरूप मैंने 'परमभावप्रकाशक नयचक्र' में विस्तार से स्पष्ट किया है। अतः यहाँ विस्तार से चर्चा करना उचित भी नहीं लगता और आवश्यक भी नहीं है। जिन्हें विशेष उत्सुकता हो, वे परमभावप्रकाशक नयचक्र के 'अनेकान्त और स्याद्वाद' संबंधी अधिकार का अध्ययन अवश्य करें। उक्त छन्द के भावानुवाद में कविवर वृन्दावनदासजी अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूप को प्रतिपादन करनेवाली स्याद्वादमयी जिनवाणी को याद करते हैं; जो इसप्रकार है - (दोहा) कुनय - दमनि सुवचन अवनि रमन स्यातपद सुद्ध । जिनवाणी मानी मुनिप घट में करहु सुबुद्धि ||३|| जिस जिनवाणी को श्रेष्ठ मुनिराजों ने इस पृथ्वी में सुवचनरूप सम्यक् नयों से कुनयों का दमन करनेवाली स्यात् पद में रमन करनेवाली शुद्धि प्रदाता मानी है; वह जिनवाणी मेरे हृदय में सुबुद्धि उत्पन्न करें । अब मंगलाचरण के तीसरे छन्द में आचार्यदेव प्रवचनसार की टीका लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं; जो इसप्रकार है - ( आर्या ) परमानन्दसुधारसपिपासितानां हिताय भव्यानाम् । क्रियते प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम् ।।३॥ (दोहा) प्यासे परमानन्द के भव्यों के हित हेतु । वृत्ति प्रवचनसार की करता हूँ भवसेतु || ३ || १३ परमानन्दरूपी अमृत के प्यासे भव्यजीवों के हित के लिए तत्त्व को प्रगट करनेवाली प्रवचनसार की यह (वृत्ति) टीका रची जा रही है। कलश-३ यह तो पहले स्पष्ट कर ही आये हैं कि आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने समयसार की आत्मख्याति टीका स्वयं के परिणामों की परमविशुद्धि के लिए बनाई थी और यह प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका परमानन्द के प्यासे भव्यों के हित के लिए बनाई है। यद्यपि आत्मख्याति से भी भव्यों का हित तो सधता ही है और तत्त्वप्रदीपिका से भी आचार्यदेव के परिणामों में निर्मलता भी आई ही होगी; तथापि मुख्य-गौण की अपेक्षा ही उक्त कथन है । समयसार परमाध्यात्म का ग्रन्थ होने से उसके अनुशीलन में आत्महित की मुख्यता रही और प्रवचनसार वस्तुव्यवस्था का प्रतिपादक ग्रन्थ होने से इसकी टीका रचने में परहित मुख्य हो गया। यद्यपि इस टीका की रचना में परहित मुख्य है; तथापि सामान्य लोगों के लौकिक हित की बात कदापि नहीं है; अपितु अतीन्द्रियानन्द के प्यासे अतिनिकट भव्यजीवों के संसारसमुद्र से पार होनेरूप हित की ही बात है । मूल ग्रन्थ तो वस्तुस्वरूप का प्रतिपादक ग्रन्थराज है ही, इस टीका में तत्त्वों का स्वरूप ही प्रगट किया जायेगा, न्याय और युक्ति से समझाया जायेगा । इसप्रकार यह वृत्ति अर्थात् टीका तत्त्वों को प्रगट करनेवाली होगी और परमानन्द के प्यासे भव्यजीवों की प्यास भी अवश्य बुझायेगी । इस प्रवचनसार ग्रन्थाधिराज की तात्पर्यवृत्ति टीका लिखते हुए आचार्य जयसेन मंगलाचरण के रूप में मात्र एक छन्द ही लिखते हैं; जिसमें वे एकमात्र सिद्धभगवान को ही स्मरण करते हैं। तात्पर्यवृत्ति के मंगलाचरण का उक्त छन्द मूलतः इसप्रकार है
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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