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________________ गाथा-४४ (दोहा) चिंतामनि अरु कल्पतरु, ये जड़ प्रगट कहाहिं। मनवांछित संकल्प किमि, सिद्धि करहिं पलमाहिं ।।१९८।। पारस निज गुन देत नहिं, नहिं पर औगुन लेत । किमि ताको परसत तुरत, लोह कनकछबि देत ।।१९९।। इच्छारहित अनच्छरी, ऐसे जिनधुनि होय । उठन चलन थितिकरन में, यहाँ न संशय कोय ।।२०।। चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्ष - इन्हें तो प्रगटरूप से जड़ कहा जाता है; फिर ये मनवांछित संकल्प की सिद्धि पल में किसप्रकार कर देते २०८ प्रवचनसार अनुशीलन जिसप्रकार बादल के आकाररूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और वरसना आदि क्रियायें पुरुष के प्रयत्न बिना ही देखी जाती हैं; उसीप्रकार केवली भगवान के खड़े रहना, चलना, दिव्यध्वनि आदि क्रियायें अबुद्धिपूर्वक बिना इच्छा के ही देखी जाती हैं। केवली भगवान के ये क्रियायें मोहोदयपूर्वक न होने से क्रिया के फल में होनेवाले बंध का कारण नहीं हैं।" वस्तुत: बात यह है कि बाह्य कियायें तो बंध का कारण हैं ही नहीं; क्योंकि यह आत्मा निश्चय से उनका कर्ता-धर्ता ही नहीं है। ये क्रियायें पूर्वबद्ध कर्म के उदय के निमित्त से होती हैं; उनके होने में आत्मा निमित्त भी नहीं है; इसीलिए उन क्रियाओं को औदयिकी क्रियायें कहते हैं। उक्त क्रियाओं के लक्ष्य से जब यह आत्मा मोह-राग-द्वेष करता है, उनमें एकत्व-ममत्व करता है, कर्तृत्व-भोक्तृत्वरूप से जुड़ता है; तब बंध होता है। अत: बंध के कारण तो ये एकत्व-ममत्व हैं, कर्तृत्व-भोक्तृत्व हैं, राग-द्वेष हैं। केवली भगवान के होनेवाली इन क्रियाओं में न तो उनका एकत्वममत्व है, न कर्तृत्व-भोक्तृत्व है और न उनके प्रति राग-द्वेष है; अत: उन्हें बंध नहीं होता। __ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा के भाव को उक्त दोनों उदाहरणों के माध्यमों से ठीक इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं। ___कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को बारह छन्दों में समझाते हैं; जो मूलत: पठनीय हैं । यद्यपि अनेक छन्द तो उक्त विषयवस्तु को ही प्रस्तुत करते हैं; तथापि कुछ नये उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं। बिना इच्छा के गमनादि कायिकक्रियायें और दिव्यध्वनि के खिरनेरूप वाचनिकक्रिया का होना, जिन्हें असंभव लगता है; उन्हें समझाते हुए वे अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार हैं - - इसीप्रकार पारस पत्थर भी किसी को अपने गुण देता नहीं है और पर के औगुणों को लेता नहीं है; फिर भी उसके स्पर्शमात्र से लोहा तत्काल सोने की छवि कैसे देने लगता है? जिसप्रकार चिन्तामणि रत्न, कल्पवृक्ष और पारस पत्थर से इच्छा और प्रयत्न बिना ही कार्य होते देखे जाते हैं; उसीप्रकार अरिहंत भगवान के अनक्षरी दिव्यध्वनि, उठना-बैठना और विहार आदि क्रियायें बिना इच्छा के ही होती हैं। इसमें संशय के लिए कोई स्थान नहीं है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __"पुराने कर्मों के उदयकाल में अपनी सावधानी न रखे और कर्म में जुड़े तो मिथ्याभ्रांति और राग-द्वेष होता है, जो संसार का कारण है। कर्म के उदय, शरीर की क्रिया और जो राग होता है, उनका जाननेवाला रहे तो वह बन्ध का कारण नहीं है। शरीर की क्रिया भी सदोषता का कारण नहीं है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३४२
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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