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प्रवचनसार अनुशीलन
ज्ञानस्वभाव को भूलकर कर्म तरफ का झुकाव बन्ध का कारण है। भगवान आत्मा ज्ञानस्वभावी है, उसकी तरफ का झुकाव बन्ध का कारण नहीं है। कर्म का उदय जड़ है, वह भी बन्ध का कारण नहीं है। हिलने की, चलने की, बोलने की क्रिया तथा मन-वाणी की क्रिया सदोषता का कारण नहीं है; फिर भी कोई कर्म के ऊपर दोष लगावे, वह बड़ी अनीति है। जिनवाणी का उसके ऊपर कोप है।
श्री जयसेनाचार्य कहते हैं कि कर्म का उदय बन्ध का कारण नहीं है। ज्ञान भी बन्ध का कारण नहीं है; अपितु मोह-राग-द्वेष बन्ध के कारण हैं। शुद्ध भावना छोड़कर कर्म की भावना बन्धका कारण है। स्वयं ज्ञातास्वभाव है, इसके आश्रय से विकार का परिणमन नहीं होता; किन्तु शुद्धस्वभाव से च्युत होता है तो कर्मों ने च्युत कराया - ऐसा कहने में आता है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का मर्म यही है कि यह तो जिनेन्द्र भगवान द्वारा निरूपित सुविचारित कथन है कि प्रत्येक संसारी जीव के ज्ञानावरणादि कर्मों का उदय सदा ही रहता है।
उक्त उदयजन्य कर्मांशों के होने पर, उनमें ही चेतते हुए जो मोहराग-द्वेषभाव होते हैं; उन मोह-राग-द्वेषरूप भावों से परिणमित होने से ही यह जीव ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया से युक्त होता है और इसीकारण उसके फल में प्राप्त होनेवाले बंध का अनुभव करता है। ___इससे ही यह सुनिश्चित होता है कि ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया और क्रियाफलरूप बंध न तो ज्ञान से होता है, न जड़कर्म से और न कर्मोदय से प्राप्त संयोग से ही होता है। बंध तो एकमात्र पर में एकत्वबुद्धिरूप मोह एवं राग-द्वेष से ही होता है।
प्रवचनसार गाथा-४४ ४३वीं गाथा में यह कहा गया है कि मोह-राग-द्वेषरूप भावों से परिणमित होने से ही यह जीव ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया से युक्त होता है और इसीकारण उसके फल में प्राप्त होनेवाले बंध का अनुभव करता है।
अब इस ४४वीं गाथा में यह बता रहे हैं कि यद्यपि केवली भगवान के भी विहारादि क्रियायें देखी जाती हैं; तथापि उन्हें बंध नहीं होता। गाथा मूलत: इसप्रकार है - ठाणणिसेजविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं। अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं ।।४४।।
(हरिगीत) यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों।
हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरिहंत के।।४४।। उन अरिहंत भगवंतों के उस समय खड़े रहना, बैठना, विहार करना और धर्मोपदेश करना आदि क्रियायें स्त्रियों के मायाचार की भांति स्वाभाविक ही हैं, प्रयत्न बिना ही होती हैं।
उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जिसप्रकार महिलाओं के प्रयत्न बिना ही उसप्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से माया के ढक्कन से ढंका हुआ व्यवहार स्वभावभूत ही प्रवर्तता है; उसीप्रकार केवली भगवान के प्रयत्न बिना ही उसप्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़ा रहना, बैठना, विहार करना और उपदेश देना आदि क्रियायें स्वभावभूत ही प्रवर्तती हैं।
यह बात बादल के दृष्टान्त से भी समझी जा सकती है; क्योंकि बादल के उदाहरण के साथ भी इसका कोई विरोध भासित नहीं होता।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३३८ २. वही, पृष्ठ-३३९-३४०