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________________ गाथा-४४ २११ २१० प्रवचनसार अनुशीलन मेरा स्वभाव तो शरीर की क्रिया तथा राग की क्रिया जो क्रमबद्ध होती है, उसको जानने का है और वह धर्म है। कर्म के अंश में रुचिझुकाव वह बन्ध का कारण है अथवा अधर्म है।' श्री कुन्दकुन्द आचार्य 'काल' शब्द कहते हैं, उसमें से श्री अमृतचन्द्र आचार्य योग्यता कहते हैं। भगवान खड़े रहे वह पुद्गल परमाणु का वर्तमान काल है। क्रमबद्ध में वही काल है, वही योग्यता है; किन्तु आत्मा के कारण बिल्कुल नहीं। विहार होते हुए शरीर ठहर जाय, वह परमाणु की योग्यता के कारण है। शरीर खड़ा हो और बैठे वह उसके स्वकाल के क्रमबद्ध के कारण बैठता है। भगवान के प्रयत्न के कारण नहीं। नामकर्म तो उसमें निमित्त मात्र है; क्योंकि वह पुद्गल की क्रिया का वर्तमान काल है। तथा भगवान की वाणी भी भाषावर्गणा के स्वकाल के कारण बनती है; किन्तु आत्मा के कारण नहीं। यहाँ केवली भगवंतों की बात करते हैं। केवली भगवान की शरीर की क्रिया खड़े रहने की अथवा बैठने की होती है, वह जड़ की क्रिया है। केवली भगवान उस क्रिया को नहीं करते। अंदर में प्रदेश का कंपन है, बाह्य जड़ की क्रिया है। भगवान के श्रीमुख से जो वाणी निकलती है, वह अघाति कर्म के निमित्त से सहज होता है और वाणी आदि की अवस्था भगवान के कारण नहीं होती। शरीर आदि की अवस्था आत्मा नहीं करता। जिसप्रकार जिन्हें ज्ञानतत्त्व के अवलम्बन से केवलज्ञान पूर्ण हो गया है, उनकी शरीर आदि की क्रिया बन्ध का कारण नहीं है; उसीप्रकार निचलीदशा में मैं जानने-देखनेवाला हूँ, मेरा स्वभाव ज्ञाता-दृष्टा है - ऐसे स्वभावसन्मुख होने का निर्णय होने पर भी जितना राग-द्वेष होता है, वह बन्ध का कारण है; किन्तु जो शरीर की हलने-चलने की क्रिया होती १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३४२ २. वही, पृष्ठ-३४३-३४४ ३. वही, पृष्ठ-३४४ ४. वही, पृष्ठ-३४५ है, वह बन्ध का कारण नहीं है। जानने-देखने की क्रिया धर्म का कारण है। केवलीभगवान को सर्वथा मोह का अभाव है। चौथे गुणस्थान में दर्शनमोह का नाश होता है। केवली भगवान को दर्शनमोह, चारित्रमोह दोनों का अभाव है; इसलिए उनको इच्छा नहीं है। इसप्रकार इच्छा बिना ही तथा मोहराग-द्वेष बिना ही शरीर आदि की क्रिया होने से केवली भगवंतों को ये क्रियाएँ बन्ध का कारण नहीं होती। जैसे, बाहर की क्रिया बन्ध का कारण नहीं है, वैसे ही ज्ञानस्वभाव भी बन्ध का कारण नहीं है । राग की रुचि करके विकार की उत्पत्ति करे तो वह सदोषता का कारण है। धर्मी को जितनी अस्थिरता-इच्छा है, उतना बन्ध है। भगवान को एक भी इच्छा नहीं है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि अरिहंत भगवान के विहार आदि शरीरसंबंधी क्रियायें तो आहारवर्गणा के कार्य हैं और दिव्यध्वनि का खिरना भाषावर्गणा का कार्य है। इन क्रियाओं का उपादानकारण तो आहारवर्गणा और भाषावर्गणा हैं और अंतरंग निमित्तकारण तत्संबंधी कर्मों का उदय है। अरहंत भगवान का आत्मा न तो इनका उपादान कारण ही है और न अंतरंग निमित्तकारण ही। जब अरिहंत भगवान इसके कर्ता ही नहीं हैं; उनका इनमें एकत्वममत्व भी नहीं है तो फिर उन्हें बंध भी क्यों हो? बंध के कारण तो मोह-राग-द्वेषरूप भाव हैं। इन मोह-राग-द्वेष भावों से वे सर्वथा रहित हैं; अत: संयोग में उक्त क्रियायें होने पर भी संयोगी भावों के अभाव के कारण उन्हें बंध नहीं होता। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यदि भाषावर्गणाओं की तत्समय संबंधी उपादानगत योग्यता और संबंधित कर्मों का उदय ही दिव्यध्वनि के कारण हैं; अरिहंत केवली का दिव्यध्वनि से कोई भी संबंध नहीं है तो फिर १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३४७-३४८
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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