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अतः हटाओ पर के कर्तृत्व की मान्यता को और केन्द्रित करो उपयोग को स्वभाव के सन्मुख।
पर से कुछ भी संबंध नहीं रहित हैं, अंध हैं। ऐसे जीव मोह नदी को पार नहीं कर सकते।"
वस्तुत: प्रत्येक द्रव्य का अपनी पर्यायों से ही तादात्म्य होता है। जब अन्य द्रव्य की पर्यायों के साथ जीव का तादात्म्य सम्बन्ध है ही नहीं तो फिर जीवद्रव्य का पुद्गलद्रव्य या अन्य जीवद्रव्य की पर्यायों के साथ तादात्म्य कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है। तादात्म्य सम्बन्ध या अन्तर्व्यापक सम्बन्ध के अभाव में कर्ता-कर्म सम्बन्ध भी कैसे हो सकता है, नहीं हो सकता।
आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं - "जो पर्याय से तन्मय होकर परिणमता है, वही द्रव्य उसका कर्ता है और जो परिवर्तन हुआ है, वही उस द्रव्य का कर्म है। उसमें जो परिणति हुई है, वही क्रिया है। कर्ता-कर्म-क्रिया - ये तीनों भी यथार्थ में जुदे-जुदे नहीं हैं, किन्तु तीनों एक द्रव्यरूप ही हैं।" मूल कलश इसप्रकार है - यः परिणमति स कर्ता,
यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । यः परिणति क्रिया सा,
अयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥५१।। द्रव्यदृष्टि से परिणाम और परिणामी का अभेद है और पर्याय दृष्टि से भेद है। भेददृष्टि से तो कर्ता, कर्म और क्रिया - यह तीन कहे गये हैं; किन्तु इस कलश में तो अभेददृष्टि से परमार्थतः यह कहा गया है कि
की कम-क्रियीं - तीनों एक द्रव्य की ही अभिन्न अवस्थायें हैं, प्रदेशभेदरूप भिन्न वस्तुएँ नहीं। ३. पचाध्यायी, गाथा ३५३.
तात्पर्य यह है कि जब कर्ता-कर्म एवं क्रिया एक ही द्रव्य में होते हैं तो कोई किसी अन्य द्रव्य का कर्ता कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता।
निमित्तों को कारण कहने का औचित्य प्रश्न ५७ : यदि निमित्त कार्य के सम्पादन में कुछ करते ही नहीं हैं तो फिर उन्हें कारण क्यों कहा ?
उत्तर : किस कार्य में कैसा निमित्त होता है - यह बताने के लिए निमित्तों को भी उपचार से कारण कहा जाता है। वास्तव में संयोगी निमित्त कार्य सम्पन्न होने में कुछ भी मदद, सहायता आदि नहीं करते।
प्रश्न ५८: यदि अकेले उपादान से ही कार्य होता है, निमित्त कुछ नहीं करते तो फिर शास्त्रों में निमित्त की कारण के रूप में चर्चा ही क्यों की
उत्तर : उपादान में हुए विशेष कार्य के अनुकूल संयोग ( निमित्त ) कैसे होते हैं - यह ज्ञान कराने के लिए निमित्तों को वर्णन किया जाता है, कार्य में उनका कर्तृत्व जताने के लिए नहीं। जिसप्रकार मिट्टी में से घट काग्र हुआ तो तदनुकूल इच्छा व क्रियावाले कुम्हार का ही संयोग रूप निमित्त होगा, जुलाहा आदि का नहीं। ऐसा ही सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता है। इसीप्रकार जीव जब सम्यग्दर्शनादि निर्मल पर्यायें प्रगट करता है तो अपनी तत्समय की योग्यता से ही करता है, किन्तु उस समय निमित्त रूप में सच्चे देव-शास्त्र-गुरु भी उपस्थित होते ही हैं।
प्रश्न ५९ : जीवों में परस्पर उपकार की भावना और उपकार के कार्य देखे जाते हैं। मित्र, माता-पिता, गुरुजन, देव-शास्त्र-गुरु, दयावान 'नोट : यहाँ द्रव्यार्थिक का विषय द्रव्य एवं पर्यायार्थिक का विषय पर्याय नहीं है। यहाँ तो जो एक ही द्रव्य के आश्रित है, उसे द्रव्यार्थिक कहा तथा जो भिन्न-भिन्न द्रव्यों के आश्रित हों, उसे पर्यायार्थिक कहा जाता है।