________________
योग्यता के कारण ही वह रागादि रूप परिणमता है।
ऐसा ही वस्तु का सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। इसी बात के स्पष्टीकरण में और भी कहा है - निमित्त होता तो अवश्य है; किन्तु निमित्त पर में - उपादान में कुछ करता नहीं है।
जिसप्रकार अग्निरूप निमित्त ईंधन को जलाने में निमित्त तो है, पर कर्ता नहीं । ईंधन में स्वयं जलने की योग्यता न हो तो अग्नि उसे नहीं जला सकती। यदि अकेले अग्नि जलाने का कार्य करने में समर्थ हो तो अभ्रक को भी जला देना चाहिए।
ठीक इसीप्रकार शुद्ध आत्मा का आश्रय होने पर दृष्टि, ज्ञान व रमणता में व्यवहार का राग निमित्त होता है; परन्तु उस निमित्त या राग ने यहाँ निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति में कुछ किया ही नहीं है। उपादान में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप कार्य अपनी उपादानगत योग्यता से होता है और सच्चे देव-शास्त्र-गुरु उसमें निमित्त होते अवश्य हैं, परन्तु वे उसमें कुछ करते नहीं हैं। ऐसा ही सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध है।
निमित्त का यथार्थ ज्ञान कराने के लिए यह कहा जा रहा है कि - भगवान आत्मा निमित्तकारण के अभाव में अकेला स्वयं राग-द्वेष रूप परिणमन नहीं करता; किन्तु आत्मा जब अपने अशुद्ध उपादान से स्वयं रागरूप परिणमता है, तब कर्म का उदय नियम से निमित्त होता ही है - अत: व्यवहार से निमित्त की मुख्यता से यह कहा जाता है कि - आत्मा परद्रव्य के द्वारा ही रागादिरूप परिणमता है।
वस्तुत: देखा जाय तो उससमय जीव को रागादिरूप अवस्था होने का स्वयं का जन्मक्षण है। परद्रव्य तो फिर भी निमित्तमात्र ही है। पर ने आत्मा का रागादिरूप परिणमन किया नहीं है।
इस सन्दर्भ में समयसार कलश १७५-१७६ की पाण्डे राजमलजी
निमित्तों को कारण कहने का औचित्य की टीका द्रष्टव्य है। जिनका भाव इसप्रकार है -
यह वस्तु का स्वरूप सर्वकाल प्रगट है कि द्रव्य के परिणाम या परिणमन के दो कारण हैं। एक - उपादान कारण व दूसरा - निमित्त कारण।
उपादान तो द्रव्य में अन्तर्गर्भित अपनी पर्यायरूप परिणमन शक्ति ही है तथा निमित्त कारण परद्रव्य का संयोग है जिसकी अनुकूलता में आत्मद्रव्य अपनी अन्तर्गर्भित परिणमन शक्ति से अपनी पर्यायरूप परिणमित होता है।
जीवद्रव्य के राग-द्वेष-मोह रूप अशद्ध परिणामों का उपादान कारण तो जीवद्रव्य में अन्तर्गर्भित विभावरूप अशुद्ध परिणाम शक्ति है तथा निमित्त कारण दर्शनमोह व चारित्रमोह कर्मरूप से बंधे हुए पुद्गलकर्मों का उदय है।
यद्यपि मोहकर्म रूप द्रव्यकर्म का उदय उन कर्म परमाणुओं के साथ ही व्याप्य-व्यापक रूप है, जीवद्रव्य के साथ व्याप्य-व्यापक नहीं है। तथापि मोहकर्म का उदय होने पर जीवद्रव्य स्वत: अपने विभाव परिणाम रूप परिणमता है - ऐसा ही वस्तु का स्वभाव है।
जैसे कि - स्फटिकमणि जो लाल, पीले, काले आदि अनेक रूप परिणमता है, उसका उपादान कारण तो स्फटिकमणि के अन्तर्गर्भित नानावर्णरूप परिणमन शक्ति ही है तथा निमित्त बाह्य नाना वर्णों के पुद्गलों का संयोग है।
ज्ञानी ऐसे वस्तुस्वरूप को जानता है, अत: उसके अशुद्ध रागादि परिणामों का स्वामित्व नहीं है, इसकारण वह पर का कर्त्ता नहीं है।
इस उपयुक्त कथन से जहाँ एक ओर यह स्पष्ट होता है कि परद्रव्य के सान्निध्य में ही आत्मा रागरूप परिणमन करता है, वहीं दूसरी ओर यह भी उतना ही अकाट्य सत्य है कि आत्मद्रव्य का विभावरूप परिणमन परद्रव्य के आधीन नहीं है।
इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि - 'जो राग की उत्पत्ति में परद्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, वे शुद्धज्ञान से