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पर से कुछ भी संबंध नहीं कर्मों का अभाव निमित्त और सिद्ध दशा नैमित्तिक ।"
उपर्युक्त कथनों में युगलों का सहज कारण-कार्य संबंध है। दोनों एक दसरे से अप्रभावित रहकर सहज निमित्त-नैमित्तिक भाव से रहते हैं तथा दोनों स्वयं अपने-अपने लिए उपादान स्वरूप भी है।
यह परिणमनशील विश्व अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहने वाला है। इसतरह यह विश्व परिणमनशील होकर भी अनादि-अनन्त है, स्थिर है तथा स्थिर होकर भी प्रतिसमय बदल रहा है। विश्व की यह स्थिरता
और परिणमनशीलता सहज है। किसी भी द्रव्य या उसके गुणों को अपने परिणमन करने में या स्थिर रहने में परद्रव्य के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। ये सभी द्रव्य एकसाथ रहकर भी जुदे-जुदे हैं।
उक्त संदर्भ में आचार्य अमृतचन्द्र का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -
"वे सब पदार्थ ( जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ) अपने द्रव्य स्वभाव में अन्तर्मग्न रहते हए अपने अनन्तधर्मों के चक्र ( समूह ) को चुम्बन करते हैं, स्पर्श करते हैं; तथापि वे अनन्त गुण-धर्म परस्पर एक-दूसरे का स्पर्श नहीं करते। यद्यपि वे अत्यन्त निकट एक क्षेत्रावगाहरूप से तिष्ठ रहे हैं, तथापि सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते । पररूप परिणमन न करने से उनकी अनन्त व्यक्तिता नष्ट नहीं होती; इसलिए वे टंकोत्कीर्ण की भांति ( शाश्वत ) स्थिर रहते हैं और समस्त विरुद्धकार्य तथा अविरुद्धकार्य दोनों की हेतता से वे सदा विश्व का उपकार करते हैं, टिकाये रखते हैं।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि जब प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय परिणमन कर रहा है, अपने परिणमन कार्य में व्यस्त है; तब पर में कुछ करने का अवकाश ही कहाँ रह जाता है ? हाँ, यह बात अवश्य है कि जब कोई द्रव्य स्वयं परिणमन करता है, तब परद्रव्यों का तदनुकूल परिणमन निमित्त १. कलश २२ सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
निमित्त-नैमित्तिकता : एक सहज सम्बन्ध कहा जाता है। ___जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्य बिना अग्निरूप परिणमित नहीं होता। उसके अग्निरूप परिणमन में सूर्य का बिम्ब निमित्त रूप में उपस्थित रहता है। वैसे ही आत्मा परद्रव्य बिना रागादि रूप परिणमित नहीं होता। उसके रागरूप परिणमन में परद्रव्य का संग निमित्त रूप से उपस्थित रहता ही है। ऐसा ही दोनों का परस्पर स्वतंत्र सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध है।
समयसार के बन्ध अधिकार की गाथा २७८-२७९ एवं उनके भावार्थ पर हुए स्वामीजी के प्रवचन मूलत: द्रष्टव्य है। उस प्रवचन का संक्षिप्त सार इसप्रकार है -
जिसप्रकार निर्मल स्वभाववाला स्फटिक मणि अकेले अपने कारण ही लालिमा आदि रूप नहीं होता; किन्तु परद्रव्य का संसर्ग होने पर अर्थात् लाल-पीले फूलों के संसर्ग होने पर उसमें लाल-पीली झाँई होती है तथा उस स्फटिक में जो लाल-पीली झाँई पड़ती है, वह अकेले लालपीले फूलों के कारण भी नहीं पड़ती है; किन्तु स्फटिक में अपनी तत्समय की योग्यता भी कारण है। ___यदि वह स्फटिक की झाँई मात्र लाल-पीले फूलों के संसर्ग से हुई हो तो उन्हीं लाल-पीले फूलों के संसर्ग से साधारण लकड़ी में भी लालपीली झाँई पड़नी चाहिए। पर, ऐसा तो होता नहीं है; क्योंकि लकड़ी की वैसी योग्यता नहीं है। अतः स्पष्ट है कि लाल-पीले रूप होना स्फटिक की ही अपनी पर्यायगत योग्यता है। ___इसीप्रकार आत्मा भी स्वयं पर्यायरूप से बदलने के स्वभाववाला होते हुए भी शुद्ध स्वभावपने से, उसमें रागादि विकाररूप होने का कारणपना नहीं होने के कारण, स्वयं के अपने कारण विकार रूप नहीं परिणमता। किन्तु अन्तरंग निमित्त द्रव्यकर्म का उदय आदि तथा बाह्य निमित्त शरीरादि परद्रव्य का संसर्ग होने पर एवं अपनी तत्समय की