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पर से कुछ भी संबंध नहीं उपादान का कार्य के अनुरूप परिणमन होता देखकर स्वतंत्र कार्य-कारणों संबंधों से अनजान जीवों को ऐसा मिथ्या प्रतिभास होता है कि उपादान के कार्य में निमित्त ने कुछ किया अवश्य है।
प्रश्न ५५ : यदि निमित्त उपादान में कुछ नहीं करते होते तो अनुकूल निमित्त की अनुपस्थिति में अभी तक वैसा परिणमन क्यों नहीं हुआ, जैसा कि तदनुकूल निमित्त मिलने पर देखा जा रहा है ? निमित्तों को सर्वथा अकर्ता कैसे कह सकते हैं ?
उत्तर : निमित्तों के अकर्तृत्व की बात ऐसे समझ में नहीं आती। इसके लिए जिनागम में आये भिन्न-भिन्न द्रव्यों के सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध के स्वरूप को समझा होगा। इसके समझे बिना और इस पर श्रद्धा हुए बिना पर के कर्तृत्व की भ्रान्ति दूर होना संभव नहीं है; क्योंकि ये संबंध अत्यन्त घने हैं!
प्रश्न ५६ : सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध से क्या तात्पर्य है ? और यह किन-किन द्रव्यों के बीच होता है। विस्तार से उदाहरण देकर समझाइये न?
उत्तर : जब उपादान स्वयं अपने स्वचतुष्टय से कार्यरूप परिणमित होता है, तब भावरूप या अभावरूप जो परद्रव्य उसके अनुकूल होता है, वह परद्रव्य निमित्त है, उसकी मुख्यता से कथन करने पर उसी उपादान के स्वभाव या विभावरूप परिणत हुए कार्य को नैमित्तिक कहते हैं।
यद्यपि यह संबंध दोनों द्रव्यों की वर्तमान पर्यायों के बीच होता है; परन्तु परतन्त्रता का द्योतक नहीं है। संक्षेप में कहें तो भिन्न-भिन्न दो पदार्थों के स्वतन्त्र परिणमन के अनुरूप व अनुकूल दृष्टि से देखना निमित्त-नैमित्तिक संबंध है।
निमित्त-नैमित्तिक एक सहज संयोग है। सूर्योदय होता है, कमल के फूल खिलने लगते हैं, कुमुदिनी के फूलों की पंखुड़ियाँ बंद हो जाती हैं। रात्रि में चन्द्रोदय होता है, कुमुदिनी के फूल खिल जाते हैं, कमल बंद हो जाते हैं। १. हिन्दी प्रवचनरत्नाकर भाग ८, पृष्ठ २४१
निमित्त-नैमित्तिकता : एक सहज सम्बन्ध
इसीप्रकार मोहकर्म के उदय का निमित्त पाकर आत्मा स्वयं ही अपनी उपदान की योग्यता से सहज ही मोह-राग-द्वेष रूप परिणमित होता है और कार्माण वर्गणाएँ भी जीवों के रागादि भावों का निमित्त पाकर अपनी उपादानगत योग्यता से कर्मरूप परिणमित होती हैं। दोनों में सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध हैं। ___ इस संदर्भ में पण्डित टोडरमलजी के विचार द्रष्टव्य हैं। वे लिखते हैं कि “यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यम से जीव का स्वभाव का घात करे, बाह्य सामग्री को मिलावे, तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिए और बलवानपना भी चाहिए; सो तो है ही नहीं। सहज ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। जब उनके कर्मों का उदयकाल हो, उस काल में आत्मा स्वयं ही स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, उसका विभावरूप परिणमन होता है। जिसप्रकार सूर्य के उदय के काल में चकवा-चकवियों का संयोग रहता है, रात्रि में वियोग हो जाता है वहाँ रात्रि में किसी ने द्वेषबुद्धि से बलजबरी करके अलग नहीं किये हैं, दिन में किसी ने करुणाबुद्धि से मिलाये नहीं हैं; सूर्योदय का निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं और सूर्यास्त का निमित्त पाकर स्वयं में ही बिछुड़ जाते हैं। ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है। इसीप्रकार कर्म का भी निमित्त-नैमित्तिक भाव
जानना।"
इसप्रकार स्पष्ट है कि निमित्त-नैमित्तिक संबंध लोक की सहज परिणति का सहज अंग है। न तो निमित्त-उपादान में बलात् कुछ करता है और न उपादान ही किन्हीं निमित्तों को बलात् लाता या मिलाता है।
वस्तुत: बात तो यह है कि किसी वस्तु विशेष का नाम तो निमित्त या उपादान है ही नहीं, प्रत्येक वस्तु स्वयं उपादानरूप होती है और कार्य के अनुकूल पर पदार्थों को उनका निमित्त कहा जाता है। जैसे कि -
"सम्यग्ज्ञानी को उपदेश निमित्त और सम्यग्दर्शन नैमित्तिक है।" "लोकालोक का रूप समस्त ज्ञेयपदार्थ निमित्त और सकल ज्ञेयों का ज्ञायक केवलज्ञान नैमित्तिक है।"