________________
पर से कुछ भी संबंध नहीं
व्यक्ति निरन्तर अपने मित्रों की, पुत्र-पुत्रियों की, शिष्यों की, भक्तों और दीन-दुःखियों की भलाई करते तो देखे ही जाते हैं न ! उनका उपकार न मानना क्या कृतघ्नता नहीं है ? किए हुए उपकारों को सज्जन पुरुष कैसे भूल सकते हैं ?
यद्यपि यह सच है कि - मित्र-शत्रु आदि को उपकारी-अनुपकारी मानने से राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है ? परन्तु ऐसा न मानने से तो समस्त लोक व्यवहार ही बिगड़ता है और कृतज्ञता जैसी कोई वस्तु ही नहीं रहेगी। तब क्या होगा?
नीतिकारों ने कहा भी है - “नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरंति" सज्जन पुरुष किये हुए उपकार को विस्मृत नहीं करते।
उत्तर : यह कोई समस्या नहीं है। यदि हमें निमित्त-उपादान का, वस्तु की कारण-कार्यव्यवस्था का तथा कर्ता-कर्म का सही स्वरूप समझ में जा जाये, इनकी यथार्थ प्रतीति हो जाए तो हम समताभाव को प्राप्त कर मानसिक शान्ति व निराकुल सुख तो प्राप्त करेंगे ही, साथ ही जबतक जगत में हैं, तबतक कृतज्ञता का भाव और जगत का व्यवहार भी भूमिकानुसार बहुत अच्छे रूप में निभेगा । ऐसा ही वस्तु की पर्यायगत योग्यता का स्वरूप है।
जब हम यह जानते हैं कि - दिवंगत आत्मा हमारे रुदन करने पर, दिन-रात शोक मनाने पर भी हमें उपलब्ध होनेवाला नहीं है, अत: रोने-धोने से लाभ तो कुछ भी नहीं है और हानियाँ असीमित हैं - ऐसा जानते हुए भी ज्ञानी से ज्ञानी गृहस्थ भी अपने प्रिय परिजनों के चिरवियोग में रोये बिना नहीं रह सकते? क्षायिक समकिती राम को ही देखो न! लक्ष्मण के चिर-वियोग में कैसा विलाप करते थे ? छह माह तक तो मुर्दा शरीर को कंधे पर रखे-रखे फिरते रहे।
यह जानते हुए भी इष्ट वियोगज आर्तध्यान पाप का कारण है, एक
द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक निमित्त-उपादान रागी गृहस्थ की भूमिका में जितना राग होगा, उतना दुःख हुए बिना नहीं रहेगा। दुःख तो होगा ही, रोये बिना भी नहीं रहा जा सकेगा। ऐसा ही सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता है।
सिद्धान्तों की सच्ची श्रद्धा और तत्त्वज्ञान के बावजूद भी जितने अंश में चारित्रगुण में कमजोरी है, उतने विकल्प हुए बिना नहीं रहते। ऐसी ही पर्यायगत योग्यता होती है - इस बात को कभी भूलना नहीं चाहिए।
प्रश्न ६० : “हमें तो पाँचों द्रव्य इन्द्रियों से शास्त्र आदि का ज्ञान एवं इनके विषयों से स्पर्श आदि का सुख होता प्रतीत होता है और आप कहते हैं कि ज्ञान व सुख प्राप्ति में इनका कुछ भी योगदान नहीं है, यह कैसे ?
उत्तर : जिसप्रकार अग्नि चन्दन में गंध उत्पन्न नहीं करती, वह तो गंध की मात्र व्यजंक है, कर्ता नहीं; उसीप्रकार पाँचों इन्द्रियाँ और इनके विषय ज्ञान व सुख को उत्पन्न नहीं करते, मात्र ज्ञान व सुख की अभिव्यक्ति में निमित्त होते हैं, इनके कर्ता नहीं होते।
"जहाँ आत्मा स्वयं सुखरूप परिणमित होता है, वहाँ पंचेन्द्रियों के विषय क्या कर सकते हैं ? कुछ भी नहीं।"
“अन्य द्रव्य से अन्य द्रव्य के गुण की उत्पत्ति नहीं की जा सकती; इसलिए सर्वद्रव्य अपने-अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं।”
“मति-श्रुत ज्ञान के समय में भी जीव ही स्पर्शादि विषयों को विषय करके स्वयं ही उस ज्ञान व सुखमय हो जाता है, इसलिए आत्मा के उस इन्द्रियज्ञान एवं इन्द्रियसुख में भी अचेतन जड़ पदार्थ क्या कर सकते हैं ?
इन सब आगम कथनों से भी सिद्ध होता है कि आत्मा को इन्द्रियज्ञान तथा विषयसुख होने में भी इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषय अनुत्पादक हैं।