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पर से कुछ भी संबंध नहीं
इसी संदर्भ में आचार्य अमृतचन्द्र ने और भी स्पष्टीकरण करते हुए आगे कहा है - "जो क्रोधादि रूप पौद्गलिक द्रव्यकर्म हैं वे स्वयं क्रोधादिभाव से अपरिणमित जीवों को क्रोधादिभाव से परिणमाते हैं या स्वयं उस रूप परिणमित हो रहे जीवों को परिणमाते हैं ?
स्वयं अपरिणमित को तो पर पदार्थों या दूसरे व्यक्ति के द्वारा परिणमित किया नहीं जा सकता; क्योंकि वस्तु में जो योग्यता या शक्ति स्वयं की न हो, उसे अन्य कोई उत्पन्न नहीं कर सकता और स्वयं परिणमित को तो पर की अपेक्षा ही नहीं होती; क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं।
इसप्रकार दोनों ही दृष्टियों से परद्रव्य का अकर्तृत्व सिद्ध है।"
प्रश्न ४९ : पुद्गलकर्म के तीव्र उदय से जीवों में मोह-राग-द्वेष रूप विभाव परिणमन तो होता ही है न ?
जैसाकि निम्नांकित पद्य में स्पष्ट कहा है - ___ "ज्यों-ज्यों पुद्गल वल करे, धरि-धरि कर्मज भेष ।
राग-द्वेष को परिणमन, त्यों-त्यों होय विशेष ॥" पुद्गलकर्म का जितना-जितना तीव्र उदय होता है, उतनी-उतनी बाहुल्यता से जीवों में राग-द्वेषरूप विभावरूप परिणाम होते हैं। इस कथन का और क्या अर्थ हो सकता है ?
उत्तर : अरे भाई ! तत्त्व से अनजान ही ऐसा कह सकते हैं कि - आत्मा में राग-द्वेष के परिणाम पुद्गल कर्मों के तीव्र उदय के अनुसार होते हैं। उक्त पद्य भी निमित्त के पक्षपाती, निमित्ताधीन दृष्टिवाले अज्ञानी की ओर से किया गया कथन है। कहा भी है -
"कोई मूरख यों कहे, राग-द्वेष परिणाम ।
पुद्गल की जोरावरी, बरते आतम राम ।। १. समसार गाथा ३१६ का भावार्थ एवं कलश १९७ २.समयसार, पृष्ठ-१३४-१३५
कार्य-कारण सम्बन्ध : एक विश्लेषण
कोई-कोई मूढजन ऐसा कहते हैं कि आत्मा में राग-द्वेष के भाव पुद्गलकर्म की जोरावरी से होते हैं।" इनसे कहते हैं कि -
“इहि विधि जो विपरीत पख, गहै सद्दहै कोई; सो नर राग विरोध सौ, कबहूँ, भिन्न न होइ। सुगुरु कहे जगमें रहे, पुग्गल संग सदीव; सहज सुद्ध परिनमनिको, पुग्गल संग सदीव; सहज सुद्ध परिनमनिको, अवसर लहै न जीव,
राग-विरोध मिथ्यात में समकित में सिवभाउ।" इसप्रकार कोई मनुष्य विपरीत पक्ष ग्रहण करके श्रद्धान करता है कि राग-विरोधरूप भावों से कभी भिन्न हो ही नहीं सकता। सद्गुरु कहते हैं कि - पुद्गल के संयोग से रागादि नहीं हैं, यदि हों तो जगत में पुद्गल का संग सदैव है तो जीव को सहज शुद्ध परिणाम करने का अवसर ही नहीं मिलेगा, इसलिए अपने (शुद्ध या अशद्ध ) चैतन्यपरिणाम में चेतनाराजा ही समर्थ है। राग-विरोधरूप परिणाम अपने मिथ्यात्वभाव में हैं और अपने सम्यक्त्वपरिणाम में शिवभाव अर्थात् ज्ञान-दर्शन सुख आदि उत्पन्न होते हैं।
इस संदर्भ में पण्डित प्रवर टोडरमलजी का कथन द्रष्टव्य है। वे लिखते हैं- “यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यम से जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्य सामग्री को मिलावे तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिए और बलवानपना भी चाहिए।"
हम स्वयं सोचें - बिना जाने कर्म यह व्यवस्था कैसे कर सकेंगे कि जीवों को किस पुण्य-पाप के फल में कहाँ/किस गति में भेजना है ? १. समयसार, पृष्ठ-१३४-१३५ २.समयसार गाथा ८०,८१,८२