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पर से कुछ भी संबंध नहीं
पुद्गलों को कर्म रूप होने में रागादि तो निमित्तमात्र हैं, वे पुद्गल कर्मरूप तो स्वयं अपनी तत्समय की योग्यता से ही परिणमते हैं। निमित्त है ही नहीं यह बात नहीं है। निमित्त हैं; परन्तु वे उपादान में कुछ करते ही नहीं हैं।
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जो निमित्त कारणों को मानते ही नहीं हैं, वे तो अज्ञानी हैं ही; पर जो निमित्तों को परद्रव्यों का कर्त्ता मानते हैं, वे भी वस्तु स्वरूप से अनभिज्ञ हैं।
द्रव्य स्वयं ही अपनी अनन्त शक्ति रूप सम्पदा से परिपूर्ण हैं, इसलिए स्वयं ही छहकारक रूप होकर अपना कार्य करने के लिए समर्थ हैं। उसे बाह्य सामग्री कोई सहायता नहीं कर सकती। इसलिए केवलज्ञान प्राप्ति के इच्छुक भव्य आत्माओं को बाह्य सामग्री की अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरर्थक है।
निमित्तों की अकारकता को सिद्ध करते हुए प्रवचनसार गाथा ६७ के भावार्थ में लिखा है कि- "संसार या मोक्ष में आत्मा अपने आप सुखरूप परिणमित होता है, उसमें पाँचों इन्द्रियों के विषय अकिंचित्कर हैं। अज्ञानीजन विषयों को सुख का कारण मानकर व्यर्थ ही उनका आलम्बन करते हैं। "
“ तत्त्वदृष्टि से देखा जाए तो राग-द्वेष को उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किंचितमात्र भी दिखाई नहीं देता; क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अन्तरंग में अत्यन्त स्पष्ट प्रकाशित होती है ।
इस आत्मा में जो राग-द्वेष रूप दोषों की उत्पत्ति होती है, उसमें परद्रव्य का कोई दोष नहीं है, वहाँ स्वयं अपराधी ही यह अज्ञान फैलाता है। इस राग-द्वेष की उत्पत्ति में अपने अज्ञान का ही अपराध है। यदि अज्ञान का नाश हो जाये तो मैं तो ज्ञानस्वरूप ही हूँ। "
१. समयसार नाटक : स. वि. अ. छन्द ६३
कार्य-कारण सम्बन्ध एक विश्लेषण
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कार्य-कारण सम्बन्ध : एक विश्लेषण
जो निमित्तों को परद्रव्य का कर्त्ता मानते हैं, उनसे आचार्य अमृतचन्द्र पूछते हैं- “जीव स्वयं परिणमित होते हुए पुद्गल द्रव्यों को कर्मभाव से परिणमित करता है या स्वयं अपरिणमित पुद्गलद्रव्यों को ?
जो स्वयं अपरिणमित हैं, उन्हें तो किसी भी शक्ति के द्वारा परिणमाया नहीं जा सकता तथा जो स्वयं परिणमित हो रहे हैं, उन्हें पर की सहायता की अपेक्षा नहीं होती।"
तात्पर्य यह है कि जो द्रव्य व गुण अपरिणामी हैं, उन्हें तो कोई भी परिणमित नहीं कर सकता और जो पर्यायें परिणमनशील हैं, उन्हें कोई अन्य द्रव्य के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती। स्वतः ही परिणमनशील वस्तु को कोई क्या परिणमित करायेगा ? वे तो स्वयं ही सतत् परिणमनशील हैं। १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २५
२. भगवती आराधना मूल १६१०
३. सर्वार्थसिद्धि १/२०/८५/७