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पर से कुछ भी संबंध नहीं ज्यों जहाज परवाह में, तिर सहज बिन पौन ।।६।।"
-कविवर बनारसीदास जब वस्तु पर की सहायता बिना ही अपना कार्य करने में पूर्ण सक्षम है तो फिर निमित्त उसके कार्य में हस्तक्षेप करनेवाले होते कौन हैं ? जिसप्रकार जहाज जल प्रवाह में बिना पवन की सहायता लिए सहज ही तैरता है, उसीप्रकार अज्ञानी जीव भी स्वतंत्र रूप से, स्वयं ही निमित्ताधीन होकर परिणमन करता है, कर्म आदि कोई अन्य परद्रव्य उसे पारधीन नहीं करते।
कोई भी पदार्थ अपने से भिन्न परपदार्थ में कुछ भी नहीं कर सकता। अत: सभी प्रकार के निमित्तरूप (परपदार्थ) अकर्ता ही हैं। किसी भी प्रकार का कोई भी निमित्त उपादान में कुछ भी फेर-बदल, परिवर्तन या कार्य नहीं करसमक्ता कलशव जगत की समझ में यह बात नहीं बैठती।
प्रवचनसास्की रची गाथाकीदीका आचार्यअमृतचन्द्रदेवाने स्पा लिखा है - “पश्चवाशाचा वेव्साहाखामा का कारकता का संबंध नहीं
कि जिससे वस्तुसवालमत्र्य,कनिमित्तोपदिामसमौर ( बाह्यसाधन हूंढने की व्यग्रसर्वशती के सन्दर्भ में पक्क्रमबखेपेथि जैसे । इसी गायतितपावन जना सिद्धान्तों को है और स्वयंभू सदा त् एवं अहेतुसुनकर भी - ___ मोक्षमार्गाशनहीं समझरूसकी शंकास्मी. घकारणरते हु। लिखा है परमात्मा, | “अनादिकीचन समवाऔिर किरणपकासम्बन्दा सहित परिणमित होतीप्तौं मोना हकिमी की अन्य द्रव्य के अधीन नहीं है।"
हमारा जीवन है किन्हीं पूर्वाग्रहों में पला कषायों से कुण्ठित और मिथ्यात्व से छला
- सुखी जीवन, पृष्ठ - ७-८
अपनी स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए यह उपर्युक्त सिद्धान्त सदैव स्मरणीय है।
न केवल एक मोक्षमार्गप्रकाशक; बल्कि समस्त आगम इसका साक्षी है कि निमित्त अकर्ता है।
प्रश्न ४७ : यदि निमित्त अकर्ता है तो सुई चुभाने से दुःख क्यों होता है? सुई तो निमित्रमात्र है न ?
उत्तर : सुई चुभाने के काल में जीव की स्वयं की वर्तमान योग्यता भी दुःखरूप पर्याय उत्पन्न होने की होती है। सुइ में से दु:ख नहीं आता है। सुई में दुःख है ही कहाँ जो उसमें से दु:ख आये ? सुई में दुःख होता तो डॉक्टरों को रुपया देकर हम सुई नहीं लगवाते । समय पर सुई ( इन्जेक्शन ) न लगे तो आकुलता होती है और सुई लगने पर रोगी संतोष की सांस लेता है। अत: सिद्ध है कि सुख-दुःख का कारण नहीं। सुख-दु:ख तो जीव की तत्समय की योग्यता से ही होता है। सुई तो निमित्रमात्र है।
देह में एकत्व-ममत्वबद्धि के कारण द:ख होता है। यदि किरायेदार हमारे निजी मकानी की दीवार में कील ठोकता है तो मकान में ममत्व होने के कारण हमें ऐसा लगता है - मानो उसने छाती में ही कील ठोकी हो ?
प्रश्न ४८ : जब पुद्गल परमाणुओं में ज्ञान भी नहीं है, शक्ति भी नही है; तो फिर ये जड़कर्म अपने आप जुड़कर कर्मरूप स्कन्ध कैसे बन सकते हैं और बिछुड़कर परमाणु रूप कैसे हो जाते हैं ? आत्मा के रागद्वेष-मोह आदि भावों के अनुसार बंधने की व्यवस्था उन जड़ कर्मों में कैसे संभव है ?
"पुद्गल परिणामी दरव, सदा परिणमे सोय।।
तातें पुद्गल करम को, पुद्गल कर्ता होय ।।"