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पर से कुछ भी संबंध नहीं उपचरित और अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनय के कथन हैं।
इन कथनों का भी अपना प्रयोजन है। इन्हें कारण कहना निरर्थक नहीं है। कर्मों के उदय, क्षय, क्षयोपशम आदि अन्तरंग निमित्तों को कारण बताकरआचार्यदेव राग-द्वेष वर्द्धक शत्रु-मित्रादि, जो साक्षात् कषाय एवं कलह के कारण भासित होते हैं; उन बहिरंग निमित्तों पर से दृष्टि हटाना चाहते हैं।
एक किंवदन्ती है कि 'बद्धिमान बनिया सदैव गड़ा पत्थर उखाड़ता है।' इस किंवदन्ती के गंभीर अर्थ और प्रयोजन पर कभी ध्यान दिया आपने? यदि नहीं तो सुनो - आमने-सामने लड़ाई-झगड़े के प्रसंगों पर जब बातों-बातों में बात मैं-मैं, तू-तू से हाथपाई तक पहुँचने को होती है तो बुद्धिमान बनिया सदैव गड़ा पत्थर उखाड़ने की चेष्टा करता है। भले ही सामने सैकड़ों पत्थर उखड़े पड़े हों, जिन्हें उठाकर आसानी से मारा जा सकता है, पर वह ऐसा नहीं करता; क्योंकि वह जानता है कि ऐसा करने से निश्चित झगड़ा बढ़ेगा, किसी को चोट लग सकती है, किसी का जान भी जा सकती है और दण्डस्वरूप उसे जेल भी हो सकती है। अत: वह गड़ा पत्थर उखाड़ने की चेष्टा द्वारा सामने वाले को भाग जाने का मौका देता है और स्वयं अपनी विजय जताकर इज्जत के साथ झगड़े से छुटकारा पा लेना चाहता है। इसीप्रकार आचार्यों ने कर्मरूप अंतरंग निमित्तों को कारण बताकर यही बुद्धिमानी का काम किया है। अंतरंग कारण जब दिखाई ही नहीं देते तो राग-द्वेष किससे करें ? क्रोध प्रगट किस पर करें ? अतः अन्तरंग कर्मोदय को कारण बताकर शत्रु-मित्रों पर से दृष्टि हटाई है।
आगे चलकर अंतरंग कारणों पर से भी दृष्टि हटाने हेतु कर्मों को भी कारण के रूप में नकार दिया है। जैसा कि निम्नांकित पद्य से स्पष्ट है -
"कर्म विचारे कौन, भूल तेरी अधिकाई।
द्रव्य-गुण-पर्याय की स्वतन्त्रता
अनि सहे घनघात, लोह की संगति पाई।" जिसप्रकार अन्दर-बाहर से एवं काले कठोर लौह की कुसंगति करने से अग्नि को घन की चोटें सहनी पड़ती हैं; उसीप्रकार रागी-द्वेषी-कलुषित आत्मा के संपर्क में आने से कर्मों को बिना कारण ही गालियाँ सुननी पड़ती हैं।
यदि वस्तुस्वरूप के सन्निकट आकर विचार किया जाय तो निमित्त उपादान में तबतक कुछ भी परिवर्तन या उत्पाद-विनाश नहीं करता या कर सकता, जबतक उपादान में उस रूप परिणमन को तत्समय की योग्यता न हो।
जीव जब अपने विपरीत पुरुषार्थ से एवं खोटी होनहार से स्वयं भ्रष्ट होता है, लोकनिंद्य पापमय प्रवृत्तियों में पड़ता है, स्वयं को संभाल नहीं पाता, उसे तीव्र कर्म का उदय कहा जाता है।
यदि वही जीव अपने सही पुरुषार्थ एवं भली होनहार से कर्मोदय से अप्रभावित रहकर स्वरूप सन्मुख होता है तो उसी कर्म के उदय को निर्जरा कहा जाता है।
प्रवचसार ग्रन्थ की गाथा ४५ की टीका में श्री जयसेनाचार्यदेव स्पष्ट लिखते हैं कि - द्रव्यमोह का उदय होने पर भी यदि शुद्ध आत्मभावना के बल से जीव मोहभाव रूप परिणमित न हो तो बन्ध नहीं होता।
वस्तुत: बात यह है कि कर्मों के उदय मात्र से बंध नहीं होता। यदि उदय मात्र से बंध होने लगे तो संसारी जीवों को सदैव कर्मोदय विद्यमान होने से सदैव बंध होता ही रहेगा, मोक्ष कभी होगा ही नहीं।
यही भाव पंचास्तिकाय गाथा १४९ की संस्कृत टीका में भी जयसेनाचार्य ने व्यक्त किए हैं। निम्नांकित पद्य से भी इसी बात की पष्टि होती है
"सधै वस्तु असहाय जहाँ, तहाँ निमित्त है कौन ।
१.प्र.सा. ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन, पृष्ठ - २७