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पर से कुछ भी संबंध नहीं
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कब / कैसे भेजना है ?
वास्तविकता यह है कि कर्मों में न तो ज्ञान ही है और न ऐसा बल ही है कि वे जीवों को बलात् सुखी-दुःखी कर सकें, उन्हें जीवन-मरण दे सकें या उनमें बलात् कोई परिणमन करा सकें ।
प्रश्न ५० : यदि वस्तुस्थिति ऐसी है तो फिर आगम में स्थान-स्थान पर कर्मों को बलवान बताने वाले एवं कर्तृत्व पोषक ऐसे भ्रममूलक कथन किये ही क्यों हैं? क्या अपेक्षा है इन निम्नांकित आगम कथनों की ?
(क) असाता वेदनीय कर्म के उदय में औषधियाँ भी सामर्थ्यहीन होती देखीं जाती हैं ?
(ख) प्रबल श्रुतावरण कर्म के उदय में श्रुतज्ञान का अभाव हो जाता
है।
(ग) 'कर्म बड़े बलवान जगत में पेरत हैं' इस भजन में तो प्रथमानुयोग के आधार पर कर्म की बलवत्ता के अनेक उदाहरण दिये ही हैं
जैसे कि पवनंजय की पत्नी रानी अंजना, सती सीता, द्रौपदी, पाँचों पाण्डव, सुकौशल, सुकुमाल, गजकुमार आदि उपसर्गजयी मुनिराज तथा भगवान आदिनाथ, भगवान पार्श्वनाथ तक अपनी मुनिदशा में विघ्न बाधाओं एवं उपसर्गों से नहीं बच सके ।
कृपया इन सभी कथनों का स्पष्टीकरण करें।
उत्तर : जहाँ तक जीव की उपादान की निर्बलता है, वहाँ तक कर्म के निमित्त का जोर चलता प्रतीत होता है। “अज्ञानी कर्म प्रकृतियों के स्वभाव में स्थित रहता हुआ कर्मफल जो वेदता है। अज्ञानी को शुद्धात्मा का ज्ञान नहीं है, इसलिए जो कर्म उदय में आता है, उसी को वह निजरूप जानकर भोगाता
है।
उत्तर : इस जीव को कर्मों ने दुःख नहीं दिया, यह दुःख तो इस जीव अपने को भूलकर स्वयं ही उत्पन्न किया है। कहा भी है
कार्य-कारण सम्बन्ध एक विश्लेषण
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"अपनी सुधि भूल आप दुःख उपजायो
ज्यों शुक नभचाल विसरि नलिनी लटकायो ।। " जिसप्रकार तोता आकाश में उड़ने की चाल भूलकर स्वयं ही नलिनी को जकड़ कर पकड़ लेता है और स्वयं ही बन्धन में पड़ जाता है।
वह चाहे तो उड़ सकता है; परन्तु नहीं उड़ता। इसमें तोते की ही भूल है; क्योंकि उसे नलनी ने अपनी अधीन किया नहीं है, वह स्वयं ही उसके अधीन हो गया है। उसीप्रकार जीवों को कर्मों ने पराधीन नहीं किया है, ये जीव ही अपनी सुध-बुध खोकर कर्मों के वशीभूत हो रहे हैं।
समयसार गाथा ७३ की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने समुद्र की भँवर में फँसे जहाज का दृष्टान्त देकर भी यही कहा है। वहाँ कहा है कि - " समस्त परद्रव्य के निमित्त से विशेषरूप चेतन में होती हुई चंचल कलोलों के निरोधों से अपने चैतन्य स्वरूप को ही अनुभव करता हुआ, अपने ही अज्ञान से आत्मा में उत्पन्न होते हुए क्रोधादिभावों का क्षय करता है। "
भावार्थ इसप्रकार है कि “जैसे समुद्र के आवर्त ने बहुत समय से जहाज को पकड़ रखा है और जब वह आवर्त शमन हो जाता है, तब वह जहाज को छोड़ देता है, इसीप्रकार आत्मा विकल्पों के आवर्त को शमन करता हुआ आस्रवों को छोड़ देता है।"
“यद्यपि जीव के परिणाम और पुद्गल के परिणाम के अन्योन्य ( परस्पर) निमित्तमात्रता है तथापि उनके कर्त्ताकर्मपना नहीं है ऐसा अब कहते हैं
जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पोग्गला परिणमति । पोग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥ ८० ॥ वि कुव्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोन्हं पि ॥ ८१ ॥ एदेण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण ।