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________________ अभिमान माया लोभ अर क्रोधादि भय परिणाम जो। सब कलुषता के भाव ये हैं क्षुभित करते जीव को ।।१३८।। प्रमादयुतचर्या कलुषता, विषयलोलुप परिणति । परिताप अर अपवाद पर का पाप आस्रव हेतु हैं ।।१३९।। चार संज्ञा तीन लेश्या पाँच इन्द्रियाधीनता । आर्त-रौद्र ध्यान अर कज्ञान है पापप्रदा ।।१४०।। कषाय-संज्ञा इन्द्रियों का निग्रह करें सन् मार्ग से। वह मार्ग ही संवर कहा, आस्रव निरोधक भाव से।।१४।। जिनको न रहता राग-द्वेष अर मोह सब परद्रव्य में। आस्रव उन्हें होता नहीं, रहते सदा समभाव में ।।१४२।। है योग हेतुक कर्म आस्रव योग तन-मन जनित हैं। है भाव हेतुक बन्ध अर भाव रतिरुष सहित है।।१४८।। प्रकृति प्रदेश आदि चतुर्विधि कर्म के कारण कहे। रागादि कारण उन्हें भी, रागादि बिन वे ना बंधे ।।१४९।। मोहादि हेतु अभाव से ज्ञानी निरास्रव नियम से। भावासवों के नाश से ही कर्म का आस्रव रुके ।।१५०।। कर्म आस्रवरोध से सर्वत्र समदर्शी बने । इन्द्रिसुख से रहित अव्याबाध सुख को प्राप्त हों ।।१५१।। ज्ञान दर्शन पूर्ण अर परद्रव्य विरहित ध्यान जो। वह निर्जरा का हेतु है निजभाव परिणत जीव को।।१५२।। (३५) जिस व्रती के त्रय योग में जब पुण्य एवं पाप ना। उस व्रती के उस भाव से तब द्रव्य संवर वर्तता ।।१४३।। शुद्धोपयोगी भावयुत जो वर्तते हैं तपविषै । वे नियम से निज में रमें बहु कर्म को भी निर्जर।।१४४।। आत्मानुभव युत आचरण से ध्यान आत्मा का धरें। वे तत्त्वविद संवर सहित हो कर्म रज को निर्जरें ।।१४५।। नहिं राग-द्वेष-विमोह अरु नहिं योग सेवन है जिसे। प्रगटी शुभाशुभ दहन को, निज ध्यानमय अग्नि उसे।।१४६।। आतमा यदि मलिन हो करता शुभाशुभ भाव को। तो विविध पुद्गल कर्म द्वारा प्राप्त होता बन्ध को ।।१४७।। ( ३४) जो सर्व संवर युक्त हैं अरु कर्म सब निर्जर करें। वे रहित आयु वेदनीय और सर्व कर्म विमुक्त है ।।१५३।। चेतन स्वभाव अनन्यमय निर्बाध दर्शन-ज्ञान है। दृग ज्ञानस्थित अस्तित्व ही चारित्र जिनवर ने कहा ।।१५४।। स्व समय स्वयं से नियत है पर भाव अनियत पर समय । चेतन रहे जब स्वयं में तब कर्मबंधन पर विजय ।।१५५।। जो राग से पर द्रव्य में करते शुभाशुभ भाव हैं। परचरित में लवलीन वे स्व-चरित्र से परिभ्रष्ट है ।।१५६।। पुण्य एवं पाप आस्रव आतम करे जिस भाव से। वह भाव है परचरित ऐसा कहा है जिनदेव ने ।।१५७।। (३६)
SR No.008364
Book TitlePanchastikay Padyanuwada evam Tirthankar Stavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2004
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size92 KB
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