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नर कर्मभूमिज भोग भूमिज, देव चार प्रकार हैं। तिर्यंच बहुविध कहे जिनवर, नरक सात प्रकार हैं ।।११८।। गति आयु जो पूरव बंधे जब क्षीणता को प्राप्त हों। अन्य गति को प्राप्त होता जीव लेश्या वश अहो ।।११९।। पूर्वोक्ति जीव निकाय देहाश्रित कहे जिनदेव ने। देह विरहित सिद्ध हैं संसारी भव्य-अभव्य हैं।।१२०।। ये इन्द्रियाँ नहिं जीव हैं षट्काय भी चेतन नहीं। है मध्य इनके चेतना वह जीव निश्चय जानना ।।१२।। जिय जानता अर देखता, सुख चाहता दुःख से डरे। भाव करता शुभ-अशुभ फल भोगता उनका अरे ।।१२२।।
(२९)
संसार तिष्ठे जीव जो रागादि युत होते रहें। रागादि से हो कर्म आस्रव करम से गति-गमन हो ।।१२८।। गति में सदा हो प्राप्त तन-तन इन्द्रियों से सहित हो। इन्द्रियों से विषयग्रहण अर विषय से फिर राग हो ।।१२९।। रागादि से भवचक्र में प्राणी सदा भ्रमते रहें। हैं अनादि अनन्त अथवा, सनिधन जिनवर कहे ।।१३०।। मोह राग अर द्वेष अथवा हर्ष जिसके चित्त में। इस जीव के शुभ या अशुभ परिणाम का सदभाव है।।१३।। शुभभाव जिय के पुण्य हैं अर अशुभ परिणति पाप हैं। उनके निमित से पौद्गलिक परमाणु कर्मपना धरें।।१३२।।
(३१)
पूर्वोक्त अनेक प्रकार से इसतरह जाना जीव को। जानो अजीव पदार्थ अब जड़ चिन्ह की पहचान से ।।१२३।। जीव के गुण हैं नहीं जड़ पुद्गलादि पदार्थ में । उनमें अचेतनता कही चेतनपना है जीव में ।।१२४ ।। सुख-दुःख का वेदन नही, हित-अहित में उद्यम नही। ऐसे पदार्थ अजीव है, कहते श्रमण उसको सदा ।।१२५।। संस्थान अर संघात रस-गध-वरण शब्द स्पर्श जो। वे सभी पुद्गल दशा में पुद्गल दरव निष्पन्न हैं ।।१२६ ।। चेतना गुण युक्त आतम अशब्द अरस अगंध है। है अनिर्दिष्ट अव्यक्त वह, जानो अलिंगग्रहण उसे ।।१२७।।
(३०)
जो कर्म का फल विषय है, वह इन्द्रियों से भोग्य हैं। इन्द्रिय विषय हैं मूर्त इससे करम फल भी मूर्त है ।।१३३।। मूर्त का स्पर्श मूरत, मूर्त बँधते मूर्त से। आत्मा अमूरत करम मूरत, अन्योन्य अवगाहन लहें ।।१३४।। हो रागभाव प्रशस्त अर अनुकम्प हिय में है जिसे । मन में नहीं हो कलुषता नित पुण्य आस्रव हो उसे ।।१३५।। अरहंत सिद्ध अर साधु भक्ति गुरु प्रति अनुगमन जो। वह राग कहलाता प्रशस्त जॅह धरम का आचरण हो ।।१३६।। क्षुधा तृषा से दुःखीजन को व्यथित होता देखकर। जो दुःख मन में उपजता करुणा कहा उस दुःख को।।१३७।।
(३२)