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________________ जो सर्व संगविमुक्त एवं अनन्य आत्मस्वभाव से जाने तथा देखे नियत रह उसे चारित्र है कहा / / 158 / / पर द्रव्य से जो विरत हो निजभाव में वर्तन करे। गुणभेद से भी पार जो वह स्व-चरित को आचरे / / 159 / / धर्मादि की श्रद्धा सुदृग पूर्वांग बोध-सुबोध है। तप माँहि चेष्टा चरण मिल व्यवहार मुक्तिमार्ग है / / 160 / / जो जीव रत्नत्रय सहित आत्म चिन्तन में रमे / छोड़े ग्रहे नहिं अन्य कुछ शिवमार्ग निश्चय है यही / / 161 / / देखे जाने आचरे जो अनन्यमय निज आत्म को। वे जीव दर्शन-ज्ञान अर चारित्र हैं निश्चयपने / / 162 / / (37) चित्त भ्रम से रहित हो निःशंक जो होता नहीं। हो नहीं सकता उसे संवर अशुभ अर शुभ दुःख का / / 168 / / निःसंग निर्मम हो मुमुक्षु सिद्ध की भक्ति करें। सिद्धसम निज में रमन कर मुक्ति कन्या को वरें / / 169 / / तत्त्वार्थ अर जिनवर प्रति जिसके हृदय में भक्ति है। संयम तथा तप युक्त को भी दूरतर निर्वाण है / / 170 / / अरहंत-सिद्ध-जिनवचन सह जिनप्रतिमाओंकेभजन को। संयम सहित तप जो करें वे जीव पाते स्वर्ग को।।१७१।। यदि मुक्ति का है लक्ष्य तो फिर राग किंचित् ना करो। वीतरागी बन सदा को भवजलधि से पार हो / / 172 / / जाने-देखे सर्व जिससे हो सुखानुभव उसी से / यह जानता है भव्य ही श्रद्धा करे ना अभव्य जिय / / 163 / / दृग-ज्ञान अर चारित्र मुक्तिपंथ मुनिजन ने कहे। पर ये ही तीनों बंध एवं मुक्ति के भी हेतु हैं / / 164 / / शुभभक्ति से दुखमुक्त हो जाने यदि अज्ञान से / उस ज्ञानी को भी परसमय ही कहा है जिनदेव ने / / 165 / / अरहंत सिद्ध मुनिशास्त्र की अर चैत्य की भक्ति करे। बहु पुण्य बंधता है उसे पर कर्मक्षय वह नहि करे / / 166 / / अणुमात्र जिसके हृदय में परद्रव्य के प्रति राग है। हो सर्व आगमधर भले जाने नहीं निजभक्ति को / / 167 / / (38) प्रवचनभक्ति से प्रेरित सदा यह हेतु मार्ग प्रभावना। दिव्यध्वनि का सारमय यह ग्रन्थ मुझसे है बना / / 173 / / प्राकृत में गाथा रची श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने। लेकर उन्हीं का सार मुझसे रच गया हरिगीत में / / निर्वाण संवत् वीर का दो सहस पंच शत तीस को। पूरण हुआ अनुवाद यह वैशाख शुक्ला तीज को / / (40)
SR No.008364
Book TitlePanchastikay Padyanuwada evam Tirthankar Stavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2004
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size92 KB
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