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राजपुरोहित जानता था कि राजा को संस्कृत भाषा बिल्कुल नहीं आती है, अत: वह बोला 'देखिये राजन् ! कोई भी विद्वान आये...उसे पूछिये 'परोपकाराय सतां विभूतय:' का अर्थ क्या होता है ? पुरोहित ने राजा को एक चिट्ठी थमाते हुए कहा यदि वह यह उत्तर दे तो समझना वह विद्वान है अन्यथा समझना वह मूर्ख
. उस पत्र में लिखा था कि 'परोपकाराय सतां विभूतयः का अर्थ है - कोने में बैठी बिल्ली चने खा रही हैं।
राजा ने स्वीकार कर लिया। ब्राह्मण यात्रा के लिये रवाना हो गया। इस बीच राजा के पास कई विद्वान आये, परन्तु सभी को उसने फेल कर दिया.....क्योंकि राजा के मन में तो राजपुरोहित द्वारा बताया अर्थ ही सही था, जो कोई बताता नहीं था।
एक दिन एक जैन मुनि पधारे। वे चार ज्ञान के धारक थे। मन:पर्यवज्ञानी थे। राजा ने परीक्षा के लिये पूछा। ___ज्ञानी भगवंत ने कहा- 'हे राजन् ! तुम्हारे मन में परोपकाराय संता विभूतय: का अर्थ है 'कोने में बैठी बिल्ली चने खा रही है' और इस संस्कृत वाक्य का सही अर्थ है 'सज्जनों की सम्पत्तियाँ-विभूतियाँ परोपकार के लिये होती है।'
यह सुनकर राजा अत्यन्त खुश हुआ और वास्तविक धर्म को सहर्ष स्वीकार अपनी आत्मा का उसने कल्याण किया।
इस तरह मन:पर्यवज्ञानी दूसरों के मन को जानकर स्व-पर कल्याण करते हैं। मन:पर्यवज्ञान के दो भेद हैं। 1. ऋजुमति और 2. विपुलमति।
इस मन:पर्यवज्ञान का आवारक कर्म मन:पर्यवज्ञानावरण है।
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /84
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