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5.केवलज्ञान और केवलज्ञानावरण
- लोक एवं अलोक तथा भूत-भविष्य और वर्तमान तीनों काल के द्रव्य, गुण एवं पर्याय का संपूर्ण ज्ञान जिससे होता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं। उसे रोकने वाला कर्म केवलज्ञानावरण कहलाता है।
ज्ञानावरण कर्मबंध के कारण ज्ञानावरणकर्म जिन कारणों से बँधता है, उन्हें ज्ञानावरणकर्म बँध के हेतु कहे जाते हैं, मुख्यत: ऐसे पाँच कारण हैं । यद्यपि उनके भेद-प्रभेदों को देखा जाय, तो बहुत भी हो सकते हैं। ___1. प्रत्यनीकता- ज्ञानी गुरु के प्रति शत्रुता रखनी....उन पर पत्थर फैंकना....उन्हें पीटना....उनके सामने बोलना आदि। आज स्कूल-कॉलेज के छात्रों में यह दुर्गुण कुक्कुरमुत्ते की तरह यत्रतत्र-सर्वत्र उग आया है और दिन-दूने रात-चौगुने पनपता जा रहा है। फल-फूल रहा है...यह एक सोचनीय दशा है। इससे भयंकर ज्ञानावरणीय कर्म बँधता है।
... 2. प्रद्वेष ज्ञान- ज्ञानी गुरु के प्रति मन में द्वेष संजो कर रखना....उन्हें गाली देना....आदि। कोई पढ़ने के लिये या प्रश्न पूछने के लिये आये तो यह क्या माथापची ? फिजूल का सिर खा . रहे हो ! नींद हराम कर रहे हो ! चलो, फूटो यहाँ से....ऐसा वचन से बोलना या मन में सोचना।
वरदत्त के जीव ने पूर्व भव में ऐसा ही सोचा था, अत: उसने ज्ञानावरण कर्म बाँधा।
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /85
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