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4.मनःपर्यवज्ञान औरमनःपर्यवज्ञानावरण ___ मनुष्यक्षेत्र= ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के मनोवर्गणा से बने हुए मन का जो साक्षात् ज्ञान करे, उसे मन: पर्यव (पर्याय) ज्ञान कहते हैं। मन की विशिष्ट रचना को देखकर वे चिंतित पदार्थ को अनुमान से जानते हैं।
इस मन:पर्यवज्ञान को रोकने वाला कर्म मन:पर्यवज्ञानावरण कहलाता है।
कोने में बैठी बिल्ली...? किसी एक गाँव के राजा को एक लोभी ब्राह्मण राजपुरोहित रोज धर्म सुनाता था। उसकी पत्नी उसे बार-बार टोकती कि 'दर्जी का बेटा जीयेगा तब तक सीयेगा। अत: चलो... तीर्थयात्रा कर आये..! पत्नी का सवाल था। मर्जी न होते हुए भी उसने हॉमी भरी और दिन तय किया। निश्चित दिन के पूर्व वह राजा के पास पहुँच गया। वह सोचने लगा कि 'न करे नारायण मेरी सीट कोई दूसरा विदेशी पंडित हजम कर जाय !' इसलिये उसने एक सुन्दर तरकीब ढूँढ निकाली और राजा से बोला 'राजन् ! मैं तीर्थयात्रा के लिये जा रहा हूँ, आपकी आज्ञा से, मगर....मगर...! राजा बोला'बोलो, बीच में अटक क्यों गये ?' ब्राह्मण बोला- 'देखिये, आजकल कई ऐसे ढोंगी पंडित घूमते रहते हैं, जिन्हें शास्त्र का तनिक भी ज्ञान नहीं होता है....फिर भी भोले-भाले लोगों को उल्लू बनातेफिरते हैं....आपको भी लोग फंसा न दे, इसलिये मैं आपको एक परीक्षा लेने का तरीका बता देता हूँ.....चाहे कितना भी बड़ा विद्वान क्यों न आ जाय....आप उसकी विद्वता की चासनी देख लेना। . राजा बोला- अच्छा ! बताइये वह क्या है ?
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!!/83
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