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3.अवधिज्ञान और अवधिज्ञानावरण
इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा रूपी द्रव्यों का जो ज्ञान करता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। देव और नारक को यह जन्म से ही होता है अतः भव प्रत्ययिक कहा जाता है। मनुष्य और तिर्यंचों में यह गुण से पैदा होता है। अतः उसे गुण प्रत्ययिक कहा जाता है।
इस अवधिज्ञान को रोकने वाला कर्म अवधिज्ञानावरण कहलाता है। यह आवरण जब हटता है तब मनुष्य यहाँ बैठे-बैठे ही देवलोक आदि देखने लगता है।
एक मुनिश्री कायोत्सर्ग में खड़े थे। भावों की विशुद्धि इतनी बढ़ गई कि मुनिश्री को अवधिज्ञान हो गया। अवधिज्ञान से उन्होंने देवलोक में उपयोग दिया। वहाँ उन्होंने एक विचित्र दृश्य देखा।
इन्द्र अपनी पट्टरानी इंद्राणी के साथ शय्या पर बैठा हुआ है। मानुनी इंद्राणी किसी कारणवश गुस्से में आ गई और उसने इन्द्र को लात मार दी। इन्द्र उसके पाँव को सहलाने लगा और पूछने लगा 'कहीं तुम्हारे पाँव को चोट तो नहीं आई ?' ___ मोहनीय कर्म के उदय से बत्रीश लाख विमान के स्वामी इन्द्र का यह बर्ताव देखकर मुनि को सहज हँसना आ गया। मुनि हँसे नहीं कि तुरन्त आया हुआ अवधिज्ञान चला गया।
हँसना....मजाक उड़ानी आदि कितना भयंकर है.....? यह इस दृष्टांत से समझा जा सकता है। अवधिज्ञान जैसा अवधिज्ञान भी चला गया...तो अन्य चीजें क्या वक्त रखती है ?
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /82
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