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________________ अब एक दूसरा उदाहरण .... एक बार अहमदाबाद के वी. एस. हॉस्पीटल में कारणवश जाना हुआ। जनरल वार्ड की बेड पर एक आदमी... .... सिर पटक-पटक कर चिल्ला रहा था... 'हे भगवान ! मैं मर गया... मर गया।' पास में पुत्र-पुत्री पत्नी आदि पारिवारिक एवं स्नेही स्वजन रो-रो कर हमदर्दी जताते हुए उसे आश्वासन दे रहे थे । दृश्य करूण था..... लगा यह आदमी अभी मर जायेगा...... चूँकि अपार वेदना के भाव उसके मुख पर छलक रहे थे। मैंने पूछा- क्या तकलीफ है ? परिवारजन बोले 'सिरदर्द है, मैं ताज्जुब था। दो घंटे के बाद दर्द गायब हो गया। आदमी पूर्ण स्वस्थ था। था तो मात्र सिरदर्द ही न.... मगर छक्के छुड़वा दिये.....क्योंकि अशातावदेनीयकर्म का रसबंध तीव्र था । - 4. प्रदेशबंध आत्मा के साथ कार्मणवर्गणा के स्कंधों का समूह जितना जुड़ता है...उसे प्रदेशबंध कहते हैं। जैसे कि कोई लड्डू पाँच सौ ग्राम का होता है, तो कोई चार सौ ग्राम ....कोई ढाई सौ ग्राम का । ठीक उसी प्रकार कार्मणवर्गणा के स्कंधों को जीव कम-ज्यादा • प्रमाण में ग्रहण करता है, उसे प्रदेशबंध कहते हैं । प्रकृतिबंध- प्रदेशबंध के कारण 'जोगा पयडीपएसा' योग से प्रकृतिबंध और प्रदेश बंध होता है। योग = मन, वचन और काया की प्रवृत्ति । यदि योग ज्यादा हो तो कार्मणवर्गणा के स्कंध ज्यादा बंधते हैं और कम हो तो कम बँधते हैं। स्थितिबंध और रसबंध के कारण 'ठिई अणुभागं कसायाओ' स्थितिबंध और रसबंध कषाय रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 49 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004216
Book TitleRe Karm Teri Gati Nyari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages170
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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