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प्रस्तावना इसी प्रकार कुबुद्धि का चित्रण भी देखिए, किस मार्मिक शैली में प्रस्तुत किया गया है
“दूतिय दुर्गति नै नियरी परपोषिनि दोषिनि है दुखदाई। इंद्रिनि की पति राखत है प्रगटी विषया रस - गुरताई।।
औगुन मंडित निंदित पंडित या दुर्बुद्धि कुनारि कहाई।। बुद्धि., २/१६/५० (घ) प्रतीक योजना
कवि देवीदास आध्यात्मिक कवि थे। अध्यात्म स्वयं अपने में एक ऐसी विधा है, जिसकी व्याख्या करते समय प्रज्ञा-पुरुषों को भी भावाभिव्यक्ति में विकट-समस्या का सामना करना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में प्रतीकों की योजना की जाती है। ये प्रतीक केवल चित्र ही उपस्थित नहीं करते, अपितु किसी भी हृदगत भाव के जीते-जागते क्रियाशील प्रतिनिधि होते हैं। कवि के भी जब विविध आध्यात्मिक भाव कठोर-चट्टानों से टकराने वाले स्रोतों की भाँति फूट निकलने के लिए मचलने लगते हैं, तब वे भी प्रकृति-प्रदत्त प्रतीकों का आश्रय लेकर अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति सहज रूप में कर डालते हैं। कवि देवीदास ने साधना के लिए "केहरि' - सिंह को प्रतीक बनाया है। इसी प्रकार सुख और दुःख की प्रवृत्तियों को प्रकाशित करने के लिए “अमृत और विष" को प्रतीक स्वरूप ग्रहण किया है। परमात्मा के लिए “गरीब नवाज एवं आत्मा का वर्णन हंस के माध्यम से किया है। संसार की अज्ञानता को उन्होंने “कूप५" के माध्यम से व्यक्त किया है। इसी प्रकार पाँच रंगों का वर्णन-पीला-ज्ञान एवं सरस्वती; हरा-समृद्धि, लाल- प्रेम और शक्ति, श्वेत- यश और काला' वर्ण- अज्ञान तथा अंधकार के प्रतीक रूप में किया गया है। स्व-पर-विवेक के लिए कवि ने “भोर १" प्रतीक का आश्रय लिया है। इन प्रतीकों के द्वारा कवि ने वर्ण्य-प्रसंगों को सरलता, सरसता, मनोवैज्ञानिकता, रमणीयता, कोमलता एवं गम्भीरता प्रदान की है।
१. बुद्धि. २/१६/२४ २. धर्म. २/६/८ ३. पद., ४/ख/१६ ४. जोग., २/११/१३ ५. पंचपद., २/७/२० ६. पंचवरन. २/१/६
७. वही., २/१/६ ८. वही., २/१/६ ९. वहीं., २/१/६ १०. वही २/१/२ ११. जोग., २/११/६
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