SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૬૬ देवीदास-विलास ज्ञानी है सुग्यानी है न ज्ञानी और दूजौ कोई और के पिछानी मैं निसानी एक ज्ञान की।।" वीत., २/९/२३ उदाहरण कवि ने वर्ण्य-विषयों को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उदाहरण-अलंकार की योजना की है। उसने एक से एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। उन्हें पढ़कर पाठक मन्त्र-मुग्ध सा रह जाता है। उसने व्यवहारनय और निश्चयनय जैसे दार्शनिक विषयों को भी अपने लौकिक उदाहरणों द्वारा सरल और सरस बना दिया है। यथा जैसे इन्द्रनील मनि डारै पय भाजन मैं मनि को सुभाव पय नीलौ सौ लगत है। निश्चै करि जद्यपि सुनील मनि आपु विर्षे उपचार करें व्यापी पय मै पगत है। जैसे सुद्धज्ञान की प्रवर्त्तना है ग्येय विर्षे व्यवहारनय के प्रमान सौं सगत है। सुद्ध नयन निहचै प्रमान ज्ञान एक ठान चग्यौ चिदानंद के समूह मैं दगत है। वीत., २/९/१९ इसी प्रकार नश्वर शरीर में चैतन्य आत्मा किस प्रकार निवास करती है, इस तथ्य को कवि ने अत्यन्त सुन्दर उदाहरणों के द्वारा प्रस्तुत किया है। यथा "जैसे काठ मांहि वसै पावक सुभाव लियें हाटक सुभाव लियै निवसैउ पल मैं। पहुप समूह मैं सुगंध कौ प्रमाण जैसे तेलु तिली के मंझार बसै और फल मैं। दही-दूध विर्षे सु तूप आप स्वरूप बसै तीत रहै ज्यौं पुरैन बीच जल मैं। जैसे चिदानंद लियें आपनो स्वरूप सदा भिन्न हैं निदान बसै देह की गहल मैं। वीत., २/९/२४ (ग) मानवीकरण (personification) कवि-प्रतिभा जब कवित्व के आवेश में जड़ एवं चेतन से तादात्म्य स्थापित कर लेती है तब उसे सृष्टि के रहस्यमय तत्वों में भी नायक अथवा नायिका के दर्शन होने लगते हैं। कवि ने सुमति के वर्णन-प्रसंग में, देखिए उसे चेतन रूप नायक की पटरानी के रूप में किस प्रकार प्रस्तुत किया है “सा चिय सुंदरि सील सती, सम सीतल संतनि के मन मानी। मंगल की करनी हरनी अघ कीरति जासु जगत्र बखानी।। संतनि की परची न रची परब्रह्म स्वरूप लखावन स्यानी। ज्ञानसुता वरनी गुणवंतिनि चेतनि नाइक की पटरानी।।" बुद्धि. २/१६/२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy