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देवीदास-विलास (ङ) छंद-योजना
प्राचीन काल से ही साहित्य में छन्दों के प्रयोग होते रहे हैं। साहित्य की दृष्टि से छन्दोबद्ध साहित्य जहाँ अधिक रुचिर और चमत्कारपूर्ण होता है, वहीं पर वह अतिदीर्घजीवी भी हो जाता है। यही कारण है कि लेखन-सामग्री के अविष्कार के पूर्व सहस्राब्दियों तक वेदादि-प्राचीन साहित्य कण्ठ-परम्परा में सुरक्षित रह सका। छान्दोग्योपनिषद में छन्दों की क्रियात्मक उपयोगिता के भाव को एक सुन्दर रूपक के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया गया है— “देवताओं ने मौत से डरकर अपने आपको (अपनी कृतियों को ) छन्दों में ढप लिया। मौत से आच्छादन के कारण ही छन्दों को छन्द कहते हैं। सायण-भाष्य में छन्द की एक व्यत्पत्ति और भी दी गई है- “छन्द कलाकारों और उनकी कला-कृतियों को अपमृत्यु से बचा लेते हैं।” छन्दों की इसी उपयोगिता के कारण साहित्य में छन्द की परम्परा निरन्तर चलती रही है। महाकवि देवीदास ने भी इसी पुरातन परम्परा का अनुकरण किया है।
उन्होंने अपनी रचनाओं में मात्रिक एवं वार्णिक दोनों ही प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने दोहा, चौपाई, गीतिका, छप्पय, सवैया, कुण्डलिया, कवित्त, रोडक, गंगोदक, तोटक, राछरौ, बेसरी आदि छन्दों के साथ-साथ अन्तरलापिका, अन्तलापथ, अछिरचेतनी, छप्पय सर्वलघु, सवैया सर्वगुरु आदि विशिष्ट छन्दों की भी नियोजना की है। सवैया छन्दों के माध्यम से उन्होंने एक सच्चे कलाकार के समान रत्नों को मुद्रिका में जड़ने जैसा आकर्षक कार्य किया है, स्थानाभाव के कारण कवि द्वारा प्रयुक्त कुछ विशिष्ट छन्दों का संक्षिप्त परिचय ही यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। (१) छप्पय-अंतरलापिका
इस छप्पय-छन्द के द्वारा कवि ने इस प्रकार के भावों को व्यक्त किया है, जिनसे सहज ही अन्तस् की स्थिति का स्पष्टीकरण हो जाता है। इस छन्द में ९ प्रश्न हैं, जिनके उत्तर अंतिम पंक्ति के अंतिम पद “वर्धमान दी जैत जिन' में निहित है। इस चरण में ९ अक्षर हैं। उनमें से पहले आठ अक्षरों के साथ अन्तिम "न" को मिला-मिलाकर आठ प्रश्नों के उत्तर बनते हैं और नौवें प्रश्न का उत्तर नौ अक्षरों से बनता है। जैसे- वन, धन, मान, नन, दीन, जैन तन, जिन और वर्धमान दी जैत जिन। १. छान्दोग्योपनिषद्., १/४/२ २. सायण भाष्य., १/१/१ ३. इन छन्दों के स्पष्टीकरण के लिए मूल चित्रबन्ध प्रकरण देखें।
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