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________________ प्रस्तावना कवि ने नवरसों की विस्तृत योजना तो नहीं की, मुक्तक काव्य होने से उसे इतना अवसर भी नहीं था, किन्तु भक्ति के आवेग में प्रसंगवश प्राय: सभी रसों का समावेश हो गया है। उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि-द्वारा तूलिका रूपी लेखनी से शान्त रस का सुन्दर निरूपण किया है और उसे रसराज माना है। इसका स्थायी भाव शम या वैराग्य है तथा विभाव-आलम्बन- असार-संसार, शास्त्रचिन्तन तपध्यान आदि। उद्दीपन-संतवचन, एकान्तस्थान एवं मृतक-दर्शन। अनुभावरोमांच, संसार-भीरुता, तल्लीनता और उदासीनता आदि हैं। धृति, मति, स्मृति हर्ष आदि संचारी भाव हैं। जहाँ समरस की स्थिति होती है, वहीं शान्तरस रहता है। संसार की भौतिकवादी चमक-दमक मानव को शान्ति-प्रदान करने में असमर्थ हैं, अतएव उसे आत्ममुखी होना आवश्यक है और आत्ममुखी होना ही शान्तरस की नियोजना है। अतः शान्तरस का रसराज के रूप में प्रयुक्त होना एकदम सार्थक है। इसलिए शान्तरस में सभी रसों का समावेश हो जाता है। उसके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं "अंतरदिष्टि जगगौ जब तेरी अंतरदिष्टि जगैगौ। होइ सरस दिड़ता दिन हूँ दिन सब भव भीत भगैगौ।। दरसन ज्ञान चरण सिवमारग जिहि रस रीति षगैगौ। देवियदास कहत तब लगि है जिय तूं सुद्ध ठगैगौ।।” (पद., ४/ख/१९) “समकित बिना न तरयौ जिया समकित बिना न तरयौ (पद., ४/ख/२३) इनके अतिरिक्त कवि ने प्रसंग वश शृंगार', भक्ति', करुण, रौद्र, भयानक', अद्भुत एवं वीभत्स आदि रसों की भी सुन्दर योजना की है, जिसके कारण उनके भक्ति काव्य में भी निखार आ गया है। १. शीलांग., २/३/५-९ २. पद., ४/ख/१५-१६ ३. पुकार., २/८/२-४ ४. वही. २/८/९ ५. वही. २/८/११ ६. वीत २/९/१० ७. पुकार, २/८/१३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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