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देवीदास-विलास
(३) अनन्त-सुख, एवं, (४) अनन्त- वीर्य।
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय एवं अन्तराय— इन चार घातिया कर्मों के क्षय से उपरोक्त चार गुण उत्पन्न होते हैं। (८/२९) अष्टादश दोष-रहित जिन-पूजा
कवि ने इस पूजा में उन अठारह दोषों की चर्चा की है, जो तीर्थकरों में नहीं होते। वे १८ दोष निम्न प्रकार हैं
(१) क्षुधा (२) तृषा (३) जन्म, (४) जरा, (५) मृत्यु (६) विस्मय (आश्चर्य) (७) अरति, (८) खेद (९) शोक, (१०) रोग (११) मद (गर्व) (१२) मोह (१३) राग, (१४) द्वेष, (१५) भय, (१६) निद्रा (१७) चिन्ता एवं (१८) स्वेद (पसीना)।
उक्त सभी दोष मानव को अत्यन्त पीड़ा देने वाले होते हैं। इसलिए कवि ने इनके दुष्प्रभाव से बचने एवं इनके शमन के लिए अर्ध्य चढ़कर अपने आराध्य से यह प्रार्थना की है कि प्रभो, जिस प्रकार आप त्याग और ध्यान के बल पर इन दोषों से मुक्त हो गए, उसी प्रकार यह मानव-समाज भी आपके गुणों का ध्यान करके इन दोषों से छुटकारा प्राप्त कर सके ऐसी शक्ति दें।
७. काव्य-वैभव . देवीदास की काव्य रचनाएँ यद्यपि अध्यात्म एवं भक्ति-परक हैं, फिर भी उनमें काव्य-कला के विविध रूप उपलब्ध हैं। प्रसंगानुकूल रसयोजना, अलंकार-वैचित्र्य, छन्द-विधान, प्राकृतिक वर्णनों की छटा, भावानुगामिनी-भाषा तथा मानव के मनोवैज्ञानिक चित्रणों से उनकी रचनाएँ, अलंकृत बन पड़ी हैं। . (क) रस-योजना
किसी भी काव्य की आत्मा रस होती है और आध्यात्मिक एवं भक्ति-साहित्य में शान्तरस को रसराज माना गया है। कविवर देवीदास ने भी रस को आनन्द के रूप में ग्रहण कर उसे निजात्म-रस के रूप में अभिव्यक्त किया है। यथा“तिजग तैं भारी सो अपूरव अचिरजकारी परम आनन्द रूप अखै अविचल हैं।
वीत. २/९/३ "आतमरस अति मीठो साधौ भाई आतमरस अति मीठौ।” पद. ४/ख/२० .
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