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________________ ५५ प्रस्तावना ६. सौरूप्य- उनका शरीर कामदेव के समान अत्यन्त सुन्दर होता है। ७. सौरभ- (सुगन्धित)- उनका शरीर अत्यन्त सुगन्धित होता है। ८. सौलक्षण्य- उनका शरीर १००८ उत्तम लक्षणों से विभूषित रहता है। ९. प्रियहितमितवादित्व- तीर्थकर हित-मित और प्रिय वचन बोलते हैं। १०. अप्रमितबल- उनका शरीर अनन्त-बल वीर्य से युक्त होता है। (७/२) केवलज्ञान के दस अतिशय कवि ने ११ छन्दों में तीर्थंकर के केवलज्ञान के दस अतिशयों की चर्चा की है। वे अतिशय निम्न प्रकार हैं १. चार सौ योजन भूमि में सुभिक्षता- केवलज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात् तीर्थंकर के करुणामय प्रभाव से यह पृथिवी धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाती है और चार सौ कोस तक चारों तरफ दुर्भिक्ष की छाया भी नहीं पड़ती। २. गगनगमन अर्थात् आकाश में गमन करना— ध्यान-योग के कारण केवली तीर्थंकर का शरीर अत्यन्त हल्का हो जाता है। अतः गमन करते समय उनका शरीर स्वयमेव ही पृथिवी का स्पर्श न करके उसके ऊपर-ऊपर ही गमन करता है। ३. अप्राणिवध तीर्थंकर अहिंसा के महान् देवता हैं। उनके समीप में किसी के भी मन से हिंसा के परिणाम स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। यह सर्वोदय की चरम परिणति है। ४. भुक्त्यभाव– केवली भगवान कवलाहार ग्रहण नहीं करते। उनकी आत्मा का इतना विकास हो जाता है कि उनके शरीर को भोजन की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। ५. उपसर्ग का अभाव- तीर्थंकर के घातिया- कर्मों का क्षय हो जाने से किसी भी प्रकार के उपसर्गों का सर्वथा अभाव हो जाता है। ६. चतुराननाभासत्व- अर्थात् चारों तरफ प्रभु के मुख का दर्शन होना। समवशरण में प्रभु का मुख पूर्व या उत्तर-दिशा की ओर रहता है किन्तु उनके चारों ओर बैठने वाले बारह-सभाओं के जीवों को ऐसा आभास होता है कि भगवान का मुख चारों दिशाओं में हैं। ७. सर्वविद्यैश्वरता- तीर्थंकर सर्व-विद्या के ईश्वर (स्वामी) कहे जाते हैं. क्योंकि कैवल्य की ज्योति से अलंकृत होने के कारण उन्हें समस्त ज्ञान हस्तामलकवत् स्पष्ट हो जाता हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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