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देवीदास-विलास ८. अच्छायत्व- अर्थात् शरीर की छाया नहीं पड़ना। आत्मा की निर्मलता के कारण उनका शरीर भी निर्मल हो जाता है। इसीलिए केवली भगवान के शरीर की छाया नहीं पड़ती।
९, समसिद्ध-नखकेशत्व- अर्थात् नख और केशों का नहीं बढ़ना भगवान के शरीर में मलरूपता धारण करने वाले परमाणुओं का अभाव हो जाने के कारण उनके नख और केश न तो बढ़ते हैं, और न घटते ही हैं।
... १०. अपक्ष्मस्पन्दत्व- अर्थात् नेत्रो की पलकों का न हिलना.। तीर्थंकर भनन्तवीर्य के स्वामी होते हैं। इस कारण उनकी पलकों के उठने-गिरने की क्रिया नहीं होती। वे सदा प्रमाद रहित होकर विशुद्ध आत्मा के क्षेत्र में जागृत रहते हैं। (७/३) देवकृत चौदह अतिशय
इस रचना में कुल छंद संख्या १५ है। इसमें कवि ने देवों द्वारा उत्पन्न तीर्थंकरों के १४ अतिशयों की चर्चा की है, जो निम्न प्रकार हैं- .
(१) सर्वार्थमयी अर्धमागधी भाषा- जिनेन्द्र भगवान की भाषा सर्वअर्थमयी अर्धमागधी-भाषा होती है, जिससे त्रिलोक के सभी जीव उसको ग्रहण कर आनन्दानुभव करते हैं।
(२) सम्पूर्ण विरोधी जीवों में मैत्री- इस अतिशय से संसार के सभी विरोधी जीवों में परस्पर में मैत्री-भाव उत्पन्न हो जाता है।
(३) वृक्षों में सभी ऋतुओं के फल-फूलों का एक साथ उत्पन्न होना।
(४) पृथिवी का दर्पणवत् निर्मल रहना- देवगण पृथिवी को रत्नमयी कर देते हैं, जिसे देखने से नेत्र और अन्तःकरण आनन्दित हो उठते हैं।
(५) सम्पूर्ण जीवों को आनन्द की प्राप्ति का होना। (६) सर्वत्र मन्द-मन्द और सुगन्धित वायु का प्रवाहित होना।
(७) भूतल दर्पणवत् स्वच्छ रहना- पवनकुमार जाति के देव तीर्थंकर के विहार करते समय पृथिवी को धूल, तृण, कंटक एवं पाषाण से रहित कर देते हैं।
(८) गन्धोदक की वृष्टि होना- मेघकुमार जाति के देव निरन्तर ही सुगन्धित जल की वृष्टि किया करते हैं।
(९) तीर्थंकर के चरणों के नीचे सुवर्ण-कमलों का रहना- तीर्थंकर के विहार करते समय देवगण उनके चरणों के नीचे स्वर्ण-कमलों की रचना करते हुए चलते हैं।
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