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(६/२) स्वजोग राछरौ
"राछरौ” बुन्देलखण्डी - भाषा का शब्द है । हिन्दी - साहित्य के "रासा” शब्द का ही बुन्देलखण्डी में "राछरौ" हो गया है। गुजराती भाषा का "रासड़ा" शब्द भी इसी अर्थ को व्यक्त करता है' । बुन्देलखण्ड में एक विशेष प्रकार के गीत होते हैं, जिन्हें "राछरौ” कहा जाता है। बुन्देलखण्डी - साहित्यकार श्री दुर्गाप्रसाद समाधिया ने "राछरौ” को सामयिक-गीतों की श्रेणी में रखा हैं ।
देवीदास - विलास
कवि ने इस रचना का शीर्षक "स्वजोग - राछरौ" रखा है। इससे प्रतीत होता है कि इसकी रचना उन्होंने अपने को ही सम्बोधित करने के लिए की है । कवि ने इस रचना में कर्म - सिद्धान्त का निरूपण किया है। वह अज्ञान के कारण इस संसार में ठीक इसी प्रकार घुल-मिल गया है, जैसे दूध में शक्कर । मिथ्यात्व के कारण इस आत्मा की जिन-धर्म में तो रुचि रह ही नहीं जाती, वह अपनी दुर्बुद्धि एवं विवेकहीनता के कारण रत्नत्रय जैसे ज्ञान - दीप को छोड़कर असार-संसार के रागद्वेष एवं मोह-विकारों में फँसकर अपने स्वरूप को भूल जाता है।
कवि देवीदास अन्य लोगों को भी सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि – “हे भव्य प्राणियो, सम्यक्त्व के बिना जीव को निश्चयपद की प्राप्ति होना सम्भव नहीं । इसलिए जीव को चाहिए कि वह सम्यक्त्व को धारण करे, जिससे उसे शिवपुर की प्राप्ति हो सके।
(७/१) जन्म के दस अतिशय
इसकी रचना कवि ने ११ पद्यों में की है, जिनमें से १० दोहा छंद हैं एवं अन्तिम छन्द सोरठा है। इसमें तीर्थंकर के जन्म के दस अतिशयों का वर्णन किया है, जो निम्न प्रकार हैं—
१. निःस्वेदत्व तीर्थंकर का शरीर जन्म से ही पसीना - रहित होता है । २. निर्मलत्व- उनका शरीर मल-मूत्र रहित निर्मल होता है। ३. क्षीर गौर रुधिरत्व- उनका रुधिर दूध के समान श्वेत वर्ण का होता है। ४. समचतुरस्त्रसंस्थान – उनका शरीर उत्तम आकार का सुगठित होता है । ५. वज्रवृषभनाराच संहनन- उनका शरीर बज्रमय होता है।
१. मधुकर, अंक ४, पृ. २३, बुन्देलखण्डी के कुछ शब्द, लेखक पं. नाथूरामप्रेमी । २. दे. मधुकर, अंक ६ पृ. २२-२३
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