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प्रस्तावना
५३
कवि ने इन पदों के द्वारा संसार की निस्सारता, बृद्धावस्था, स्वार्थपरता आशातृष्णा की विचित्रता, आत्म-तत्व, सम्यक्त्व, स्याद्वाद, अनेकान्त, एवं गुरुभक्ति आदि विषयों पर प्रकाश डाला है। भावों को पूर्ण रूप से चित्रित करने की कवि में अद्भुत क्षमता शक्ति है। उन्होंने गूढ़ और नीरस - विषयों का निरूपण भी सुन्दर और सरस शैली में किया है।
(५) चित्रबन्ध रचनाएँ
कंवि ने चित्रबन्ध पद्यों के माध्यम से अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है। उसने २२ चित्रों में कुछ छन्दों को बाँधा है, जिनमें कवित्त, गीतिका, दोहरा एवं दोहा - छन्दों को विशेष महत्व दिया है । " जोगपच्चीसी” (दोहरा सं. आठ) में उन्होंने स्वयं ही कहा है कि ये सभी छन्द नट की केलि-क्रीड़ा के समान ही उलटपुलट करके पढ़ने में आनन्द - वर्षा करने वाले हैं। यथा
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“पद एकादस वरन कौं दुगुन करत तुकबंध । उलट-पुलट नट से लसैं केलि गतागत छंद । । "
कवि ने (सं. १४) के एक छन्द में तो अपनी बुद्धि-कौशल एवं भाषा के प्रयोग से आश्चर्यचकित ही कर दिया है। उसने एक कवित्त को एक चित्र में इस प्रकार समायोजित किया है कि उसमें (एक ही छन्द में) अरिल्ल, चौपही, दोहा, सोरठा आदि छन्दों की योजना अनायास ही हो जाती है ।
(६/१) हितोपदेश
हितोपदेश की रचना कवि ने नरेन्द्र- छन्द में की है, जिनकी पद्य संख्या ११ है। कवि ने सम्बोधन-शैली में सद्गुरु के माध्यम से सांसारिक-प्राणियों को संसार की नश्वरता का उपदेश दिया है और बतलाया है कि यह जीव भौतिक विषय-रस में लिप्त रहने के कारण चारों गतियों में भटकता रहता है। जब तक यह अरहन्तदेव को पहिचान कर, उनके उपदेशों में श्रद्धा रखकर सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं कर लेता, तब तक यह इसी प्रकार जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहेगा। कवि ने स्वानुभव के आधार पर यह शिक्षा देने का प्रयत्न किया है कि भव्य जीवों को चाहिए कि वे आत्मा और पुद्गल के भेद - विज्ञान को समझने का प्रयास करें क्योंकि इस भेद विज्ञान के द्वारा ही मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है।
इसी प्रसंग में कवि ने द्रव्यों की चर्चा करते हुए उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य रूप सत् की चर्चा भी की है, जो कि द्रव्य का मूल लक्षण है।
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