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प्रस्तावना
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दुर्गाटवी आदि की परिभाषाएँ देते हुए उनकी भौगोलिक-स्थितियों का रम्य चित्रण किया है. इस रोचक विषय की चर्चा आगे की जा रही है।
आर्यखण्ड की चर्चा करते हुए कवि ने बतलाया है कि वहाँ का चक्रवर्ती राजा वही कहलाता है, जिसको ३२ हजार राजा नमस्कार करें अर्थात् उतने राजा उसके अधीन रहते हैं। उसकी (चक्रवर्ती की) ९६ हजार रानियाँ होती हैं।
इसी क्रम में कवि ने अर्धचक्री, मांडलीक, राजा, अधिराजा एवं महाराजा का भी वर्गीकरण किया हैं। तदनुसार १६ हजार राजाओं का अधिपति अर्धचक्री, आठ हजार राजाओं पर शासन करने वाला माण्डलीक, चार हजार राजाओं पर शासन करने वाला अर्धमाण्डलीक अथवा राजा, दो हजार राजाओं पर शासन करने वाला अधिराजा एवं एक हजार राजाओं पर शासन करने वाले को महाराजा कहा जाता है। चक्रवर्ती की नौ निधियाँ निम्न प्रकार हैं
(१) काल नामकी प्रथम निधि- जिससे ऋतु के अनुसार विविध पदार्थों की प्राप्ति होती थी। (२) महाकाल-निधि- जिससे असि, मसि, कृषि आदि छह प्रकार के कर्मों के साधनभूत द्रव्य एवं सम्पदा निरन्तर उत्पन्न होती रहती थी, (३) नैसर्पनिधि से शैय्या, आसन एवं मकान आदि की प्राप्ति होती थी, (४) पाण्डुक-निधि से सभी प्रकार के धान्यों की उत्पत्ति होती थी, साथ ही छह-रस भी इसी निधि से उत्पन्न होते थे, (५) पद्म नामकी निधि से सभी प्रकार के सूती, एवं रेशमी वस्त्रों की उत्पत्ति होती थी, (६)माणव-निधि से नीतिशास्त्र तथा अनेक प्रकार के शस्त्रों की उत्पत्ति होती थी. (७) पिङ्गल-निधि से दिव्य-आभरण उत्पन्न होते थे, (८) शंख नामकी निधि से सभी प्रकार के वाद्य-यन्त्र उत्पन्न होते थे, एवं (९) सर्वरत्न नामकी निधि से अनेक प्रकार के रत्न प्रकट होते थे।
कवि ने चक्रवर्ती के चौदह रत्नों का भी वर्णन किया है.। यहाँ पर रत्न से तात्पर्य हीरे, मोती, जवाहरात से नहीं है, बल्कि संसार की जितनी भी श्रेष्ठ वस्तुएँ हैं और जो पृथिवी की रक्षा तथा ऐश्वर्य के उपभोग करने के साधन हैं, उन्हें रत्न कहा गया है। ऐसे रत्नों में से प्रथम सात रत्न अजीव एवं अन्तिम सात रत्न जीवधारी होते हैं। इन रत्नों का परिचय निम्न प्रकार दिया गया है(क) १. सदर्शन चक्र- यह आयधशाला में उत्पन्न होने वाला दैदीप्यमान चक्ररत्न है, जो समस्त दिशाओं पर आक्रमण करने में समर्थ था। शत्रु इसका तेज प्रभाव देख नहीं सकते थे।
२. चण्डवेग रत्न- यह दण्ड-रत्न सैन्य , पृथिवी एवं गुफा के काँटों को शोधने में कुशल होता था।
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