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प्रस्तावना
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की प्राप्ति हो सकती है, अन्यथा तो यह मानव को अनेक प्रकार से दुखी बनाते रहते हैं। इसलिए सद्गुरु के ज्ञानमय अमृत वचनों को सुनकर अपने अन्तर को शुद्ध एवं निर्मल कर, आत्म-दर्शन करना ही श्रेयस्कर है।
गुरु सुमति रूपी अँगुली से ज्ञान-रूपी अञ्जन को जब दिव्यं नेत्रों में आँजता है, तभी मोहरूपी अन्धकार को विच्छिन्न कर ज्ञान-दीप प्रकाशित होता है। जीवात्मा शुद्धोपयोग रूपी महाजल से ही अपने अन्तर को स्वच्छ कर सकता है। कवि ने हृदय की कोमलता, कल्पना की मनोहरता एवं अनुभूति की तीव्रता को अनेक रूपकों के माध्यम से प्रस्तुत करके ज्ञान के महत्व का प्रतिपादन किया है।
कवि ने इस रचना में ज्ञान को सुमति-वधु के नाम से सम्बोधित किया है और बतलाया है कि मूर्ख व्यक्ति के हृदय में इसका निवास सम्भव नहीं है। क्योंकि वह तो ज्ञान-सुता है और चेतन रूपी नायक की पटरानी है। उससे जो भी साधक अपने अन्तस् को आलोकित कर लेता है, वही प्रशस्त गति का अधिकारी होता है और जो अज्ञानता के मोहपाश में आबद्ध रहता है, वह रावण के समान नरक का भागी होता है।
इस प्रकार कवि ने उक्त रचना में अनेक दृष्टान्तों द्वारा ज्ञान की महत्ता पर सुन्दर प्रकाश डाला है। प्रस्तुत रचना कवि के पारिवारिक इतिवृत्त, साधना-स्थल एवं रचनाकाल की दृष्टि से भी विशेष महत्वपूर्ण है। कवि ने लिखा है कि उसके भाई गंगा, गुपाल एवं कमलापति नाम के हुए, जो गंगा की पवित्रता के समान थे। इनमें कमलापति अच्छी शिक्षाओं को सिखाने वाले थे। (दे. पद्य संख्या. ५४...) कवि ने प्रस्तुत रचना के लेखन-स्थल के विषय में कहा है कि उसने यह रचना कैलगवां दिगौड़ा ग्राम में रहते समय की थी (दे. पद्य संख्या ५४)। रचना-काल के विषय में भी संकेत करते हुए कवि ने अन्त में कहा है कि उसने इसका लेखन वि. सं. १८१२ चैत्र शुक्ल पूर्णमासी गुरुवार के दिन किया था। (३/१) जिनांतराउली
__“जिनांतराउली' नामक रचना का प्रारम्भ कवि ने दोहा छन्द से करके २८ चौपाइयों में अपने वर्ण्य-विषय को स्पष्ट किया है तथा अन्त में दो दोहरा-छन्दों का नियोजन किया है। इसमें कवि ने चौबीस तीर्थंकरों के निर्वाण-समय में कितनाकितना अन्तर है, उसका वर्णन किया है। तीर्थोंकरों के निर्वाण की काल-गणना की दृष्टि से यह रचना विशेष महत्व रखती है।
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