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देवीदास - विलास
प्रारम्भ में कवि ने पहले काल को ४ कोड़ा कोड़ी सागर - प्रमाण, दूसरे को तीन कोड़ा - काड़ी सागर - प्रमाण एवं तीसरे को दो कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण बतलाते हुए भोग - भूमि का वर्णन किया है। उसी क्रम में कवि ने प्रथम काल को उत्तमभोगभूमि, द्वितीय को मध्यम एवं तृतीय- काल को जघन्य भोगभूमि कहा है। उसके बाद कर्म-भूमि का वर्णन किया है और बतलाया है कि जुगला-धर्म के समाप्त होते ही आदि जिनेश्वर का जन्म हुआ। उनके परिनिर्वाण के ५० लाख कोटि सागरोपम के पश्चात् अजितनाथ स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुए । उनके कोटि ३० लाख सागरोपम पश्चात् सम्भवनाथ। उनके १० लाख कोटि सागरोपम पश्चात् अभिनन्दननाथ। उनके ९ लाख कोटि सागरोपम के बाद सुमतिनाथ, ९० हजार कोटि सागरोपम के बाद पद्मनाथ, ९ हजार कोटि सागरोपम उपरान्त सुपार्श्वनाथ ९ सौ कोटि सागरोपम के बाद चन्द्रप्रभु, ९० कोटि सागरोपम के बाद पुष्पदन्त, ९ कोटि सागरोपम उपरान्त शीतलनाथ, १ करोड़ ६६ लाख २६ हजार वर्ष कम १ लाख - पूर्व सहित करोड़ सागरोपम के पश्चात् श्रेयांसनाथ, ५४ सागरोपम बीत जाने पर वासुपूज्य, ३० सागरोपमों के बीत जाने पर विमलनाथ, ९ सागरोपमों के बीत जाने पर अनन्तनाथ, ४ सागरोपम में पाव-पल्य घटने पर धर्मनाथ, ३ सागरोपम में आधा पल्य घटने पर शान्तिनाथ, पुनः २ सागरोपम में आधा - पल्य बीतने पर कुन्थुनाथ, ११००० कम एक हजार करोड़ वर्ष में पाव-पल्य के व्यतीत हो जाने पर अरहनाथ, १ हजार करोड़ वर्ष बीत जाने पर मल्लिनाथ, ५४ लाख वर्ष बीत जाने पर मुनिसुव्रत, ६ लाख वर्ष बीतने पर नमिनाथ, ५ लाख वर्ष बीतने पर नेमिनाथ, पौने ४८ हजार वर्ष बीतने पर पार्श्वनाथ एवं उनके परिनिर्वाण के २५० वर्ष पश्चात् महावीर स्वामी का परिनिर्वाण हुआ।
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भगवान महावीर के निर्वाण के समय चतुर्थ- काल के ३ वर्ष, ८ माह, १५ दिन ही शेष रह गए थे। भगवान महावीर के पश्चात् गौतम स्वामी, सुधर्मा स्वामी एवं जम्बूस्वामी का निर्वाण क्रमशः १२, १२, ३८ वर्ष बाद अर्थात् ६२ वर्षों में हुआ । उनके १०० वर्षों तक मनः पर्ययज्ञान की स्थिति बनी रही। इनमें चौदहपूर्व के धारी एवं बारह-अंगों के धारी ५ श्रुतकेवली - नन्दी, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन एवं भद्रबाहु नाम के आचार्य हुए। इन आचार्यों के बाद भरतक्षेत्र में पुनः कोई श्रुतकेंवली नहीं हुआ।
तत्पश्चात् १८३ वर्षों में दस पूर्व- धारी ११ आचार्य हुए। यथा— १. विशाख २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. जय ५. नाग, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषेण, ८. विजय, ९. बुद्धिल १०. गंगदेव, ११. सुधर्म । उक्त आचार्यों के बाद ग्यारह
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