________________
'प्रस्तावना कवि ने ३६ पद्यों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चरित्र रूपी त्रिरत्नत्रिवेणी के महत्व का प्रतिपादन किया है और भव-प्राणियों को बार-बार यही समझाने का प्रयत्न किया है कि भव-समद्र से मानव का उद्धार करने का एकमात्र साधन वैराग्य और तप ही है। इस तप और वैराग्य का पूर्ण रीति से पालन करने के लिए रत्नत्रय का धारण करना आवश्यक है। सिद्धावस्था प्राप्त करने के लिए भी वही " पूर्णतया सहायक और समर्थ है।
कवि ने वर्ण्य-विषय के प्रस्तुतिकरण हेतु विविध छन्दों का आश्रय लिया है। . जैसे-छप्पय, तोटक, सवैया, कुंडरिया, अरिल्ल, चौपाई, मरहठा, बेसरी, चर्चरी, पद्धड़ी, साकिनी, नाराच, रोडक, गीतिका एवं कवित्त आदि। इस छन्द-वैविध्य को देखकर अकस्मात् ही महाकवि केशव की रामचन्द्रिका एवं चन्द कवि के पृथिवीराजरासो का स्मरण आ जाता है। इस रचना के माध्यम से कवि की बहुमुखी प्रतिभा तथा उसके काव्यशास्त्रीय ज्ञान का परिचय भी सरलता से मिल जाता है। (२/१५) तीन मूढ़ता अरतीसी
कवि देवीदास ने प्रस्तुत रचना में ३८ दोहा, चौपाई-छन्दों में देव-मूढ़ता, गुरु-मूढ़ता एवं शास्त्र-मूढ़ता का मार्मिक वर्णन किया है। सर्वप्रथम उन्होंने महावीरस्वामी की वन्दना की है, तत्पश्चात् तीनों मूढ़ताओं का वर्णन कर तथा उनके सांतसात भेद बतलाकर उन्हें लक्षणों एवं उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया है। ___देवमूढ़ता के सम्बन्ध में कवि ने बतलाया है कि जो लोग वीतराग देव की भक्ति को छोड़कर अन्य सरागी देवताओं की भक्ति करते हैं, उनका जीवन निष्फल हो जाता है। यथा
"चंडिनि-मुंडिनि के रस याग्यौ भक्ति क्षेत्रपालादिक लाग्यौ। हरि-हरादि पूजै निज देवा जानैं मानिन मैं स्वयमेवा। यहु परिनमन हृदै तसु आवै सो प्रत्यक्ष सुर-मूढ़ कहावै।। (पद्य ७-८)” ।
गुरुमूढ़ता का दिग्दर्शन कराते हुए कवि ने कहा हैं कि, सच्चा गुरु उसी को समझना चाहिए, जो सम्यक्त्व का पालन करने वाला, पूर्ण-अहिंसक, अपरिग्रही एवं षट्-आवश्यक-क्रियाओं को करने वाला हो।
जो बाहर से तो व्रत धारण करले किन्तु अन्दर से परिग्रही, ढोंगी एवं सम्यक्त्वहीन हो, वह गुरुमूढ़ता के अन्तर्गत ही रहेगा। यथा
“सम्यक्तहीन हीनव्रत ठीको बाहिज आभ्यंतर अति फीकौ। (पद्य १३-१४)"
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org