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देवीदास-विलास
मरण का चक्कर लगाना पड़ता है। इसी प्रसंग में कवि ने कठोर और कोमल दोनों भूमियों का भी वर्णन किया है।
प्रस्तुत रचना के अनुसार पृथिवीकायिक जीवों के दो भेद हैं। एक कठोर प्रथिवीकायिक जीव और दसरा कोमल पृथिवीकायिक जीव। कठोर पृथिवीकायिक जीव उसे कहते हैं, जो दुर्धर जल के भार से भी कभी नहीं छीजता। शिला, उपल, अभ्रक, तार, लोहा, विद्रुम, रत्न एवं ताँबा आदि उसी के भेद माने गए हैं।
. कोमल भूमि के अन्तर्गत खेतों की मिट्टी आदि आती है। उनमें जो जीव उत्पन्न होते हैं, उन्हें कोमल पृथिवीकायिक जीव कहते हैं।
कवि ने उक्त रचना वि. सं. १८१०, आश्विन कृष्ण पंचमी मंगलवार के दिन की थी। यथा
"सत अष्टादस दस अधिक संवत अस्विन मास।
कृष्ण पंचमी भौमदिन पहु विरदंत प्रकास।।" (२/१३) विवेक बत्तीसी - प्रस्तुत रचना के नाम के अनुरूप ही कवि ने बत्तीस प्रकार के चित्रबन्ध-दोहरों में इस विषय को चित्रित किया है। कवि ने विवेक की तुलना पारस-पत्थर से करते हुए बतलाया है कि जिसने विवेक को अपनाकर समरसता प्राप्त कर ली, वह निश्चय ही उस पारस-पत्थर के समान हो जाता है, जिसके स्पर्श मात्र से ही लोहा सोना बन जाता है।
कवि ने भगवान पार्श्वनाथ और वर्द्धमान की स्तुति करके अन्तरंग और बहिरंग करुणा का उल्लेख किया है, साथ ही भेद-विज्ञान का वर्णन करते हुए बतलाया है कि चेतन और काया ये दोनों ही अलग-अलग हैं। इसलिए मन, वचन, काय से निग्रंथ-गुरु की भक्ति करके दर्शन, ज्ञान और चारित्र जैसे गुणों को प्राप्त करना चाहिए एवं, व्रत, संयम, तप, और चतुर्विधदान रूपी चार रत्नों की प्राप्ति कर आत्मा का कल्याण करना चाहिए।
, कवि ने प्रस्तुत रचना वि. सं. १८१४ भादों सुदी १३ के दिन की थी। (२/१४) दर्शन छत्तीसी
यह रचना आचार्य कुन्दकुन्द कृत दर्शन-पाहुड नामक रचना का परिवर्तित भाषा-रूप है। रचना के अन्त में कवि ने इसे स्वयं स्वीकार किया है। यथा- कुन्दकुन्द मुनिराज कृत...
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