SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना ४१ हुए हैं। इस छन्द-वैविध्य का मूल कारण कवि की विषय विविधता ही है। कवि ने विषय के अनुकूल छन्दों का प्रयोग किया है और इसमें कवि की प्रतिभा एक लक्षणशास्त्री के रूप में उभरकर सम्मुख आई है। ___ उक्त रचना में कवि ने सर्वप्रथम तीर्थंकर नेमिनाथ की स्तुति करके उनके गुण, तप और ध्यान की कठोर-साधना का वर्णन करते हुए मानव को उसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी है तथा पार्श्वनाथ को संशय का हरण करने वाला बतलाकर कमठ के उपसर्ग का सरस वर्णन किया है। तत्पश्चात् महावीर के व्रत एवं नियमों का वर्णन कर महा-मोह का वर्णन किया है और बतलाया है कि मोह के उदय से ही जीव में भोग-विलास की रुचि उत्पन्न होती है। आध्यात्मिक साधना में मोह ही सबसे बड़ा बाधक है। इस रचना में आत्मा और शरीर को लेकर एक व्यापार का रूपक प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत शारीरिक-कार्यों के लिए अप्रस्तुत व्यापारिक उपादानों का सांगोपांग निरूपण करते हुए उससे भेद-विज्ञान के प्रयत्नों पर प्रकाश डाला गया है तथा आत्मा को “हंस" शब्द से सम्बोधित किया गया है। अपनी सरस एवं सरल भाषा शैली के माध्यम से कवि ने यहाँ आध्यात्मिक भावनाओं की सुन्दर अभिव्यंजना की है और अन्त में उसने गुरु के महत्व को दर्शाते हुए बतलाया है कि बिना गुरु की प्राप्ति के सम्यक्-भाव की प्राप्ति सम्भव नहीं। सम्यग्दृष्टि के प्राप्त होने पर ही जीव का कल्याण सम्भव है. (२/१२) जीवचतुर्भेदादिबत्तीसी प्रस्तुत रचना में कुल ३२ पद्य हैं। इसमें चौपाई-छन्द का प्रयोग किया गया है। चौपाई. रचना के आदि एवं अन्त में १-१ दोहरा छन्द का प्रयोग किया गया है। इसमें कवि ने जीव के चार भेद बतलाए हैं- प्रथम सत्ता अथवा सत्व है, जिसके अन्तर्गत पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायुकायिक जीव आते हैं। दूसरा भेद भूत है, जिसमें वनस्पति-जीवों की चर्चा की गई है। तीसरे प्रकार के जीवों में विकलत्रय जीवों एवं चौथे भेद में पंचेन्द्रिय जीवों का वर्णन किया गया है। कवि ने इन चारों प्रकार के प्राणियों की उत्कृष्ट आयु का उल्लेख करते हुए इनके वधं से होने वाले पाप-कर्मों पर भी प्रकाश डाला है और बतलाया है कि असंख्यात जीवों की हिंसा के कारण ही जीव-तत्व को अनन्तानन्त-भवों में जन्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy