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देवीदास-विलास यह शैली अनूठी है। हिन्दी-साहित्य की उपदेश मूलक-रचनाओं में यह रचना मौलिक एवं सम्भवतः सर्वप्रथम विरचित है।
उक्त रचना में कवि ने मानव के पूरे परिवार का चित्र उपस्थित करके, उसे संसार के समक्ष इस रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे अन्तस् के सौन्दर्य का ज्ञान स्वतः ही हो जाता है। यह रचना मानव-हृदय को स्वार्थ-पूर्ण सम्बन्धों से ऊपर उठाकर विश्वकल्याण की भाव-भूमि पर ले आती है, जिससे अन्तर्मन के विकारों का परिष्कार हो जाता है। इस रचना के अध्ययन से यह भी स्पष्ट है कि बहुज्ञकवि देवीदास में मानव-हृदय के आन्तरिक-भावों को चित्रित करने की कैसी अद्भुत क्षमता थी।
__ कवि ने प्रस्तुत वर्ण्य-विषय का पारिवारिक सम्बन्धों के साथ उदाहरण देते हुए बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। उदाहरणार्थ
आजा गुरु उपदेश मैं आजीय ज्ञानस्वरूप।।२।। नानी की तूं मानि है कहौं खोलि तुझ कान। नाना करमन तूं करै करता पुद्गल आन।।३।। आ फूफास्यों बाल जिम रोवै चहै न माई। ज्यौं तुम पर परनति पगे निज सुसक्ति विसराई।७। मौसी राख्यौ हैं मनो जिन आगम के हेत। मौसा हिव तूं हो रह्यौ गहै चतुर्गति खेत।।८।। (आदि आदि)
कवि ने यह रचना वि. सं. १८१६ जेठ वदी १२ के दिन ललितपुर में अपने हाथों से स्वयं ही लिखी थी। यथा- “संवतु १८१६ जेठ वदी १२ लिखितं ललितपुर मझा सुहस्त।” (२/११) जोग पच्चीसी
कवि ने जोग पच्चीसी की रचना कवित्त, सवैया एवं छप्पय प्रभृति अनेक प्रकार के २५ पद्यों में की है। प्रत्येक पद्य के बाद दोहरा-छन्द को रखा गया है, जो पूर्वप्रयुक्त छन्दों का पूरक प्रतीत होता है। छन्दों की बहुलता एवं विविधता को देखकर बरबस ही हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन महाकवि केशवदास कृत रामचन्द्रिका की याद आ जाती है। किन्तु विशेषता यह है कि कविवर देवीदास के उक्त छन्द “नट" के समान लोक रंजनकारी अठखेलियाँ करते प्रतीत होते हैं। इन छन्दों को उलट-पलट कर पढ़ने से विशेष आनन्द की रसानुभूति होती है। इस रचना के कुछ छन्द चित्रों में भी बँधे
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