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________________ ३८ देवीदास-विलास लोकोपकारी महाप्रभु का वर्णन करने में शेषनाग की जिह्वा भी सर्वथा असमर्थ है। शिखर-लोक में सिद्ध-शिला पर विराजने वाले सिद्ध भगवान ही परमसिद्धि को प्रदान करने वाले हैं। सिद्ध प्रभु समस्त भव्य जीवों को इस कलिकाल से छुटकारा दिलाने में समर्थ हैं। __ आचार्य-पदधारण करने वाले परमेष्ठी ही सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चरित्र को प्रकाशित करने वाले हैं। चौथे, उपाध्याय ही इन्द्रिय-जनित विकल्पों से मुक्त कर समरसता का पान कराने वाले हैं। अन्त में लोक के सभी साधुओं को नमस्कार करते हुए कवि ने कहा है कि “पाप-पुण्य से उद्धार करने वाले, भोगरूपी सो से छुटकारा दिलाने वाले तथा सप्त-तत्वों का वर्णन करने वाले, सर्वसाधु ही हमें सुबुद्धि देने वाले हैं। अतः उन सभी त्रिकालवर्ती परमश्रेष्ठ महापुरुषों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। क्योंकि उन्हीं पंचपरमेष्ठियों के मन्त्र का जप-ध्यान करने से जिनपद की प्राप्ति सम्भव है। इस पंच परमेष्ठी स्तुति के द्वारा कवि ने जैन-दर्शन एवं सिद्धान्त के गूढ़ रहस्यों का बड़े ही सरल और प्रभावोत्पादक ढंग से निरूपण किया है, जो अत्यन्त प्रेषणीय है। (२/८) पुकार-पच्चीसी इसकी रचना कवि ने सवैया-तेईसा नामके छन्द में की है। इसकी कुल पद्य संख्या २५ हैं। इस रचना का प्रतिपाद्य तो इसके शीर्षक से ही स्पष्ट है। कवि ने संसार के विषय-जन्य क्षणिक सुखों की सारहीनता एवं अबाध गति से चलने वाले जन्म-मरण के कष्टदायी चक्कर से ऊबकर अपने आराध्य करुणा-निधान एवं गरीबनवाज को अपने उद्वार के लिए पुकार लगाई है। कवि की इस पुकार में दीनता, करुणा, विनम्रता एवं मार्मिकता पूर्णरूपेण मुखरित हुई है। कवि ने जीवन में चिरन्तन-सत्य और सत्य की प्रक्रिया को जिस रूप में देखा, उसी रूप में उसकी अभिव्यक्ति जन-कल्याण हेतु कर दी है। अनादिकाल से मानव किस प्रकार विषय-रस के फलों को खाकर निरन्तर संसार-परिभ्रमण करता आ रहा है, इस तथ्य का वर्णन करते हुए कवि ने चारों गतियों का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। कवि को केवल अपने भटकने की चिन्ता नहीं है किन्तु जब वह सम्पूर्ण प्राणीजगत् को इसी रूप में देखता है, तो करुणा से भरकर अधिक चिन्तनशील हो उठता है। उसकी यह चिन्तनशीलता शरदपूर्णिमा की स्निग्ध चाँदनी के समान चमक उठती है। वह सम्पूर्ण मानव जगत् को इस बन्धन से छुटकारा दिलाना चाहता है और दयार्द्र होकर एक सेवक के समान इस प्रकार पुकार उठता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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