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प्रस्तावना
(२/६) धरम- पच्चीसी
धर्म-पच्चीसी की रचना कवि ने "ढाल छंद" में की है। इसमें कुल २५ पद्य है। उनमें कवि ने अनेक दृष्टान्तों के द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया है, साथ ही उसकी व्यापकता का प्रसार भी किया है। कवि ने जिनधर्म को सभी पुरुषार्थों का मूल बतलाया है। उसके अनुसार सभी पर्यायों में मानव-पर्याय ही सर्वोत्तम है, जिसके माध्यम से सर्वोच्च पद (मोक्ष) को प्राप्त किया जा सकता है।
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धर्म को न मानने वालों की कवि ने तीव्र - भर्त्सना करते हुए कहा है कि जो लोग धर्म का त्याग करके मिथ्यात्व और विषय विकारों का पोषण करते हैं वे मूढ़ व्यक्ति अमृत-रस को त्याग कर विष का साक्षात् पान करत हैं अथवा वे कल्पवृक्ष को काट कर उसके स्थान पर " आक" के वृक्ष को अपने दरवाजे पर रोपते हैं।
इस प्रकार अनेक दृष्टान्तों के द्वारा उन्होंने धर्म के महत्व को प्रतिष्ठित किया है और मानव-समाज को धर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा प्रदान की है। क्रोध, मान, माया और लोभ जैसे विकारी भावों में रमण करने वाले व्यक्तियों को किस गति की प्राप्ति होती है, इस पर भी कवि ने विचार किया है।
(२/७) पंचपद - पच्चीसी
प्रस्तुत रचना में कुल २५ पद्य हैं। इसका प्रारम्भ दोहरा - छन्द से हुआ है। तत्पश्चात् छप्पय-छन्द का प्रयोग किया गया है।
कवि ने इसमें पंच परमेष्ठी की महिमा का गान किया है और स्पष्ट कहा है कि इसे उसने केवल अपनी बुद्धि एवं अनुभव से प्रकाशित किया है।
प्रस्तुत रचना के छप्पय बड़े ही सरस, प्रवाह - पूर्ण एवं सारग्राही हैं । कवि वस्तुतः संसार की क्षणिकता से सुपरिचित है, अतः वह स्वानुभव से सांसारिक जीवन को भी सुखमय बनाने की दृष्टि से भौतिकता के साथ-साथ ऐसे आध्यात्मिक-रस की धारा प्रवाहित करना चाहता है, जिसमें शाश्वत सुख की प्राप्ति की आशा का संचार एवं नव-जीवन का सन्देश सन्निहित हो। इसीलिए उसने पंचपरमेष्ठी के गुणों एवं महिमा को प्रकाशित कर मानव के आत्मोद्धार के लिए एक नया मार्ग प्रशस्त करने का प्रयत्न किया है।
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कवि का कथन है— कि पंचपरमेष्ठी का जाप ही प्राणी के लिए भवोदधि से पार उतारने वाला जहाज है । वीतरागी - अरहन्त ही शिवलक्ष्मी के ऐसे महानायक हैं, जिन्होंने मिथ्याज्ञान को जड़मूल से जलाकर भस्म कर दिया है। उन जैसे
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