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देवीदास-विलास सहज ही में हो जाय। उनकी यह रचना दार्शनिकता, सैद्धान्तिकता एवं सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की दृष्टि से परिपूर्ण है।
इस रचना की एक अन्यतम विशेषता यह है कि कवि ने इसके ४५ वें छन्द में स्वयं ही स्पष्ट किया है कि मूल प्राकृत-भाषा की द्वादश-भावना को देखकर मैंने हिन्दी भाषा में इसकी रचना की है।
अन्त में रचनाकाल एवं स्थान का नाम आदि भी दिया गया है। कवि ने यह रचना वि. सं. १८१४ कुँवार सुदी १२ गुरुवार को दुगौड़ा' नामक ग्राम में बैठकर समाप्त की थी। यथा
साल अठारह सै सु फिर धरौ चतुर्दस और।
दुतिय कुँवार सु द्वादसी गुरुवासर सुख ठौर।। (२/५) शीलांग चतुर्दशी
प्रस्तुत रचना मात्र १४ दोहरा-छन्दों में है। इसमें कवि ने शील अर्थात् चारित्र के समस्त भेद-प्रभेदों का वर्णन किया है।
कवि ने सर्वप्रथम मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना के द्वारा शील के ३६ भेद किए। पुनः पाँच इन्द्रियों को लेकर ३६४५ कर इसके १८० भेदों का निरूपण किया है। तत्पश्चात् कामदेव के दस भेदों का वर्णन किया गया है। इन दस भेदों का १८० में गुणा कर देने से शीलांग के १८०० भेद हो जाते हैं।
कामदेव के इन दस भेदों के प्रकट होने से शरीर और मन की जो स्थिति हो जाती है, उस पर कवि ने सुन्दर प्रकाश डाला है। कामदेव के दस भेदों की तरह शरीर और मन के लक्षण भी दस है। जिस प्रकार शृंगार-रस में वियोग की स्थिति आने पर चिन्ता, दीर्घोत्छ्वास, कामज्वर, मूर्छा आदि संचारी-भावों की जागृति होती है, उसी प्रकार इसमें भी दस भावों की जागृति होती है। जैसे- १. चिन्ता २. दर्शन, ३. दीघोच्छ्वास, ४. कामज्वर, ५. शरीर की जलन ६. भोजन-अरुचि, ७. मूर्छा ८. कामवासना, ९. प्राणसन्देह एवं १०. प्राणमोचन।
इस प्रकार कवि ने सांसारिक-प्राणियों को शील के समस्त भेदों का स्पष्ट वर्णन कर उन्हें शील पर दृढ़ रहने का उपदेश दिया है।
१. दे. द्वादस-भावना की पुष्पिका २. मूल प्रति में “पिर" शब्द का प्रयोग किया गया है।
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